संतान सुख या आर्थिक बोझ? मेटरनिटी पैकेज का काला सच

Jitendra Kumar Sinha
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मां बनना हर महिला के जीवन का सबसे अनमोल अनुभव होता है। लेकिन जब यही पवित्र अनुभव निजी अस्पतालों के लिए कमाई का जरिया बन जाए, तो मामला सिर्फ चिकित्सा का नहीं, बल्कि नैतिकता का बन जाता है। आज देश के कई बड़े अस्पतालों में मेटरनिटी पैकेज यानी डिलीवरी पैकेज के नाम पर भारी लूट मची है।


इन अस्पतालों का दावा होता है कि वे तयशुदा राशि में गर्भवती महिलाओं को संपूर्ण सेवाएं देंगे – जैसे सामान्य प्रसव, सिजेरियन डिलीवरी, बेड, दवाइयां, नर्सिंग और नवजात की देखभाल। लेकिन जैसे ही महिला भर्ती होती है, असली खेल शुरू होता है। पैकेज में दिखाए गए दावों के उलट, अस्पताल एक-एक करके अतिरिक्त खर्च जोड़ते जाते हैं।


सबसे आम तरीका है – जरूरत न होने पर भी सिजेरियन कर देना। डॉक्टरों पर दबाव होता है कि वे ज्यादा से ज्यादा ऑपरेशन करें क्योंकि इससे अस्पताल की कमाई बढ़ती है। ऐसे कई केस सामने आए हैं जहां महिला पूरी तरह से सामान्य प्रसव के लिए तैयार थी, लेकिन “इमरजेंसी” का हवाला देकर C-section कर दिया गया।


फिर आता है दवाइयों और जांचों का खेल। बाहर 100 रुपये की दवा को अस्पताल के अंदर 700 रुपये में बिल किया जाता है। पैकेज में शामिल होने के बावजूद हर ब्लड टेस्ट, हर सोनोग्राफी, यहां तक कि डॉक्टर की विजिट भी एक्स्ट्रा चार्ज में डाल दी जाती है। और अगर नवजात पूरी तरह स्वस्थ है, तब भी “अभी कुछ घंटे ऑब्जर्वेशन के लिए ICU में रखना पड़ेगा” कहकर बच्चा ICU में भेज दिया जाता है – जहां हर दिन का खर्च 10,000 से 20,000 रुपये तक हो सकता है।


कई बार अस्पताल यह कहकर मरीज को महंगे रूम में शिफ्ट कर देते हैं कि “आपके लिए एक स्पेशल रूम अवेलेबल है”, जबकि बाद में पता चलता है कि उसका किराया भी तीन गुना है और पैकेज में शामिल नहीं था। मरीज और उनके परिवार वाले पहले से भावनात्मक तनाव में होते हैं, उसपर ये आर्थिक दबाव उन्हें पूरी तरह तोड़ देता है।


इस लूट में बीमा कंपनियां भी बराबर की भागीदार हैं। ज्यादा बिल का मतलब ज्यादा क्लेम, और ज्यादा क्लेम का मतलब ज्यादा प्रीमियम। मरीज सोचते हैं कि बीमा कवर कर लेगा, लेकिन उन्हें नहीं पता कि उनके नाम पर कितना गेम खेला जा रहा है।


दिल्ली, मुंबई, पटना, बेंगलुरु – देश के हर बड़े शहर में ऐसे किस्से आम होते जा रहे हैं। एक परिवार बताता है कि उन्हें कहा गया था कि 60,000 रुपये में सब कुछ हो जाएगा, लेकिन डिस्चार्ज के समय बिल बना ₹1.6 लाख का।


सरकार ने भले ही कई योजनाएं चलाई हैं – जैसे जननी सुरक्षा योजना – लेकिन निजी अस्पतालों पर अब भी कोई सख्त नियंत्रण नहीं है। जरूरत है कि सरकार मेटरनिटी पैकेज को रेगुलेट करे, पैकेज के नाम पर लूट पर रोक लगे, और मरीजों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया जाए।


मातृत्व कोई व्यापार नहीं है। यह एक मानवीय अनुभव है, जिसमें सेवा भावना होनी चाहिए, न कि मुनाफा कमाने का अवसर। जब तक आम जनता जागरूक नहीं होगी, और जब तक सरकार सख्त कानून नहीं बनाएगी, तब तक यह लूट चलती रहेगी – और हर नवजात के पहले रोने के साथ एक परिवार आर्थिक बोझ के आंसू बहाता रहेगा।

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