जगदीप धनखड़ ने हाल ही में उपराष्ट्रपति पद से अचानक इस्तीफा देकर पूरे देश की राजनीति को चौंका दिया। उन्होंने अपने त्यागपत्र में स्वास्थ्य कारणों का हवाला दिया, लेकिन राजनीतिक गलियारों में यह बात तेजी से फैल गई कि मामला सिर्फ स्वास्थ्य का नहीं, बल्कि कहीं ज़्यादा गंभीर और रणनीतिक है।
दरअसल, उपराष्ट्रपति के रूप में राज्यसभा के सभापति की भूमिका निभा रहे धनखड़ ने एक विपक्षी महाभियोग प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया था, जो केंद्र सरकार के एक करीबी न्यायाधीश के खिलाफ लाया गया था। इस फैसले से सरकार असहज हो गई थी। सूत्रों के अनुसार, जिस दिन धनखड़ ने इस्तीफा दिया, उससे अगले ही दिन सरकार की ओर से उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया जाने वाला था। इस्तीफे का समय देखकर यही अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि उन्होंने सरकार की रणनीति को भांपते हुए समय रहते खुद को अलग कर लिया।
धनखड़ के इस्तीफे से पहले दो वरिष्ठ मंत्रियों ने उनसे मुलाकात की थी, जहां कथित तौर पर कुछ कड़े सवाल और नाराज़गी के स्वर सुनने को मिले थे। यह स्पष्ट संकेत था कि केंद्र सरकार उनके रुख से खुश नहीं थी। खासकर न्यायपालिका के मामलों में उनकी सक्रियता और स्वतंत्र फैसलों ने सत्ता पक्ष को असहज कर दिया था।
धनखड़ ने इस्तीफा देते ही अपने सामान समेटना शुरू कर दिया था, और तत्काल प्रभाव से उपराष्ट्रपति का सरकारी निवास भी खाली कर दिया। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया है और अब उपराष्ट्रपति पद रिक्त हो चुका है।
इस घटनाक्रम ने विपक्ष को एक बड़ा मुद्दा दे दिया है। वे लगातार यह सवाल उठा रहे हैं कि क्या एक स्वतंत्र सोच रखने वाले उपराष्ट्रपति को सिर्फ इसीलिए हटने के लिए मजबूर किया गया क्योंकि उन्होंने सरकार की मंशा के खिलाफ फैसला लिया? विपक्ष का दावा है कि लोकतंत्र में स्वतंत्र संस्थाओं की भूमिका को इस तरह दबाना बेहद खतरनाक संकेत है।
अब उपराष्ट्रपति पद के लिए संभावित नामों की चर्चा शुरू हो गई है। भाजपा की ओर से थावर चंद गहलोत, हरिवंश नारायण सिंह और रामनाथ ठाकुर जैसे नाम सामने आ रहे हैं, जबकि विपक्ष एक साझा उम्मीदवार उतारने की तैयारी में है। संभावना है कि अगले कुछ दिनों में चुनाव आयोग इस पद के लिए अधिसूचना जारी करेगा।
धनखड़ का यह अचानक फैसला इतिहास में एक ऐसे घटनाक्रम के रूप में दर्ज हो सकता है, जहां एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को अपनी संस्थागत स्वतंत्रता की कीमत चुकानी पड़ी। यह प्रकरण सत्ता, संवैधानिक मर्यादाओं और राजनीतिक संतुलन के बीच चल रही खींचतान का प्रतीक बन गया है।
