मैगी — नाम सुनते ही हर भारतीय की भूख जाग जाती है। दो मिनट में बनने वाली ये नूडल्स सिर्फ़ बच्चों की पसंद नहीं रही, बल्कि कॉलेज हॉस्टल से लेकर ऑफिस कैबिन तक इसकी खुशबू और स्वाद हर जगह फैला हुआ है। लेकिन जैसे-जैसे महंगाई बढ़ी, बाकी कंपनियाँ अपने दाम बढ़ा-बढ़ा कर ग्राहकों को चौंकाने लगीं। वहीं मैगी ने चालाकी से एक अलग रास्ता अपनाया। उसने दाम नहीं बढ़ाए, लेकिन चुपके से पैक का वज़न घटा दिया।
पहले जो मैगी का पैक 100 ग्राम में आता था, वही अब 70 ग्राम, 65 ग्राम और कहीं-कहीं तो 55 ग्राम तक सिमट गया। लेकिन पैकेट पर वही लाल-पीला रंग, वही "2-Minute Noodles" की ब्रांडिंग और वही MRP — जिससे आम ग्राहक को लगा कि "चलो, महंगाई में भी मैगी ने साथ नहीं छोड़ा।" असल में ये एक मनोवैज्ञानिक खेल था। ग्राहक को लगा कि कीमत नहीं बदली, जबकि असल में उसे कम माल देकर ज़्यादा भाव में बेचा जा रहा है। यही है मार्केटिंग की चालाकी — जहाँ भावनाओं को कीमतों से बेहतर इस्तेमाल किया जाता है।
मैगी ने अपने ब्रांड इमेज को हथियार बनाकर इस "शिकंजे वाली स्ट्रैटेजी" को सफल बना दिया। लोगों को लगा कि Nestlé उनकी जेब का ख्याल रख रहा है, लेकिन असल में उसने मात्रा कम कर दी और मुनाफ़ा बनाए रखा। इसका फायदा यह हुआ कि दूसरे ब्रांड जो दाम बढ़ा रहे थे, वे "महंगे" नज़र आने लगे जबकि मैगी "वफादार" दिखी। इसी वजह से उसने बाज़ार में अपनी पकड़ और भी मज़बूत की।
इसे कहते हैं Shrinkflation — जब वस्तु की कीमत वही रहती है, लेकिन मात्रा कम कर दी जाती है। Nestlé ने इसे बखूबी अपनाया और भारतीय उपभोक्ताओं की मनोविज्ञान को पूरी तरह भुनाया। लोग कम वज़न का फर्क तब तक नहीं समझ पाते जब तक ध्यान से ना देखें। वैसे भी जब भूख लगी हो, तो कौन ग्राम गिनता है?
सच ये है कि मैगी ने अपने दाम "न बढ़ाकर" ग्राहकों का भरोसा जीतने का जो नाटक किया, उसमें उसने बाज़ार के असली मास्टरमाइंड जैसा खेल दिखाया। यह एक ऐसा उदाहरण है जहाँ ग्राहक को कीमत की स्थिरता का झांसा देकर कम माल दिया गया, और फिर भी तालियाँ बटोरी गईं। यही है कॉरपोरेट पॉलिटिक्स का असली स्वाद — जो हर निवाले के साथ हमें पता भी नहीं चलता और हमारी जेब से खेल जाता है।
