बहुत समय पहले की बात है। विक्रमादित्य महाराज के दरबार में न्याय, साहस और करुणा की त्रिवेणी बहती थी। उनके सिंहासन पर विराजमान थीं बत्तीस अप्सराएँ, जो हर एक राजा की परीक्षा लेने से पहले अपनी-अपनी कथा कहती थीं — जिससे यह सिद्ध हो सके कि क्या कोई अन्य राजा विक्रमादित्य के समान गुणवान हो सकता है या नहीं।
तीसरे दिन जब राजा भोज ने सिंहासन पर चढ़ने का प्रयास किया, तो तीसरी प्रतिमा, जिसका नाम था गुणवती, मुस्कराते हुए बोली:
"ठहरो राजा भोज! जब तक मेरी कथा नहीं सुन लेते, तुम्हें इस सिंहासन पर बैठने का अधिकार नहीं। सुनो, मैं तुम्हें बताती हूँ उस घटना की बात जब राजा विक्रमादित्य ने केवल अपने विवेक और करुणा से एक नगर को विनाश से बचा लिया था।"
कथा: न्याय का तराजू
विक्रमादित्य के काल में उज्जैन नगर में एक घटना हुई जिससे पूरा राज्य विचलित हो गया।
एक दिन दरबार में दो औरतें रोती हुई आईं, उनके साथ एक नवजात शिशु था। दोनों का दावा था कि वही उस बच्चे की असली माँ है। दरबार में खलबली मच गई। कोई न जान सका कि कौन सच बोल रही है और कौन झूठ।
प्रधानमंत्री ने सुझाव दिया कि दोनों स्त्रियों को अग्निपरीक्षा से गुज़ारा जाए। किसी ने कहा, "बच्चे को दो टुकड़ों में बाँट दो और दोनों को आधा दे दो — फिर सच्ची माँ सामने आ जाएगी।"
यह सुनकर सभी दरबारी सहम गए, लेकिन राजा विक्रमादित्य शांत बैठे रहे। उन्होंने दोनों स्त्रियों को ध्यान से देखा, फिर आदेश दिया:
"बच्चे को तलवार से दो टुकड़ों में बाँट दो और दोनों को दे दो।"
एक स्त्री चुप रही, लेकिन दूसरी ने चीखकर कहा,
"नहीं महाराज! बच्चे को मत मारिए! मैं झूठी हूँ, इसे इसे दे दीजिए, पर मेरे लाल को कुछ मत होने दीजिए!"
विक्रमादित्य ने तुरंत निर्णय सुना दिया —
"यह स्त्री ही सच्ची माँ है, क्योंकि एक माँ अपने प्राण दे सकती है, पर अपने बच्चे का बाल भी बाँका नहीं देख सकती!"
दरबार में सन्नाटा था, फिर पूरा सभा मंडप जयकारों से गूंज उठा —
"राजा विक्रमादित्य की जय!"
गुणवती का निष्कर्ष
गुणवती प्रतिमा ने अपनी कथा समाप्त करते हुए राजा भोज की ओर देखा और बोली:
"राजा भोज! क्या तुम उस विक्रम के समान न्याय कर सकते हो? क्या तुममें इतनी सूझबूझ, करुणा और धैर्य है? अगर नहीं, तो तुम्हें अभी इस सिंहासन पर बैठने का कोई अधिकार नहीं है।"
राजा भोज लज्जित हो उठा। उसने सिर झुका लिया और प्रण किया कि वह पहले स्वयं को योग्य बनाएगा — केवल सिंहासन को पाने के लिए नहीं, बल्कि उन गुणों को पाने के लिए जिनकी रक्षा विक्रमादित्य ने की थी।
