जब राजा भोज सिंहासन पर बैठने को बढ़े, तो सातवीं पुतली विद्यावती प्रकट हुई और मुस्कराते हुए बोली, "ठहरो राजा भोज, तुम इस सिंहासन पर तभी बैठ सकते हो जब तुम भी विक्रमादित्य जैसे न्यायी, ज्ञानी और दूरदर्शी हो। सुनो, मैं तुम्हें एक और कथा सुनाती हूँ, जिससे तुम जान सको कि इस सिंहासन पर बैठने के योग्य होना क्या वास्तव में आसान है?"
एक बार उज्जयिनी नगरी में एक महान ज्योतिषी और तांत्रिक ब्राह्मण आया। उसके पास असीम ज्ञान था, मगर एक रहस्य ऐसा था, जिसे वह आज तक नहीं जान सका था। वह राजा विक्रमादित्य के पास पहुँचा और बोला, "राजन, मैं एक रहस्य जानने को व्याकुल हूँ, जिसे मैं वर्षों से सुलझा नहीं पाया। क्या आप मेरी सहायता कर सकते हैं?"
राजा विक्रमादित्य ने मुस्कराकर कहा, "पूछो ब्राह्मण, यदि वह ज्ञान मेरे भाग्य में है, तो तुम उत्तर अवश्य पाओगे।" ब्राह्मण ने बताया, "मैंने ध्यान में देखा है कि धरती के केंद्र में एक अदृश्य शक्ति है। उस शक्ति के चारों ओर तीन दिव्य रेखाएँ घूमती हैं। वे रेखाएँ क्या हैं, मैं नहीं जान पाया।"
राजा ने गंभीर स्वर में कहा, "आओ ब्राह्मण, हम सात दिन तक साधना करेंगे, फिर जो उत्तर मिलेगा, उसे तुम्हें दूँगा।" राजा ने सब राजकार्य मंत्रियों को सौंप दिया और ब्राह्मण के साथ साधना में लीन हो गए। सात दिन बाद, जब साधना पूर्ण हुई, तो राजा को दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई। उन्होंने उन रेखाओं का रहस्य देखा और ब्राह्मण से कहा, "पहली रेखा धर्म है, जो सृष्टि को नीति से जोड़ती है। दूसरी रेखा कर्म है, जो जीवों को उनके कार्यों का फल देती है। तीसरी रेखा ज्ञान है, जो आत्मा को मोक्ष की ओर ले जाती है। यही वह त्रयी है, जो इस ब्रह्मांड को संतुलन देती है।"
ब्राह्मण राजा के उत्तर से चमत्कृत हो गया और उसने राजा के चरण पकड़ लिए। वह बोला, "राजन, आपने वह उत्तर दिया है, जो ब्रह्मांड के रहस्य को उजागर करता है। आप केवल सम्राट ही नहीं, एक ऋषि हैं।"
इसी दौरान एक और घटना घटी। दो व्यापारी दरबार में आए और एक हीरे पर दावा करने लगे। दोनों कहते थे कि वह उनका है। कोई प्रमाण नहीं था। राजा ने बिना कोई झंझट किए दोनों की आंखों में देखा और हीरे को उनके सामने रखा। फिर बोले, "जिसकी आंखों में यह हीरा सच्चे प्रेम से चमक उठेगा, वही इसका असली मालिक है।"
एक व्यापारी की आंखों में लोभ था, जबकि दूसरे की आंखों में स्नेह और संतोष। राजा ने हीरा स्नेह वाले व्यापारी को दे दिया। सभी दरबारी हतप्रभ रह गए। ब्राह्मण बोला, "यह न्याय केवल वही कर सकता है, जो दृष्टा हो – जो मन और आत्मा को पढ़ सके।"
इतनी बात कहकर पुतली विद्यावती फिर से राजा भोज की ओर मुड़ी और बोली, "राजा भोज, क्या तुममें यह दृष्टि है? क्या तुम स्वार्थ से परे होकर आत्मा की आवाज़ को पहचान सकते हो? यदि नहीं, तो तुम इस सिंहासन के योग्य नहीं।"
यह सुनकर राजा भोज ने चुपचाप सिर झुका लिया और एक बार फिर सिंहासन से दूर हट गए।
