जब राजा भोज ने विक्रमादित्य के सिंहासन पर बैठने का प्रयास किया, तो सिंहासन की पहली पुतली वाणीवती प्रकट हुई। उसकी आँखों में तेज था और वाणी में गूंजती हुई गंभीरता। उसने राजा भोज से कहा, "हे राजन, क्या आप उस सिंहासन पर बैठने योग्य हैं, जिस पर कभी स्वयं विक्रमादित्य जैसे न्यायप्रिय, मधुरभाषी और प्रजावत्सल सम्राट विराजते थे? यदि नहीं जानते तो सुनिए एक कथा।"
वाणीवती ने कहना शुरू किया। उज्जयिनी नगरी में एक बार दो व्यापारी भाई राजा विक्रमादित्य के दरबार में पहुँचे। दोनों रो रहे थे और एक-दूसरे पर चोरी का आरोप लगा रहे थे। दोनों का दावा था कि उनके पिता ने उन्हें एक बहुमूल्य माणिक्य रत्न दिया था, पर अब दूसरा उसे अपना बता रहा है। दोनों में कोई भी झुकने को तैयार नहीं था। दरबारियों की समझ से बाहर था कि सच कौन बोल रहा है।
राजा विक्रमादित्य ने दोनों को ध्यान से देखा, फिर शांत भाव से मुस्कुराते हुए बोले, “कभी-कभी सत्य तलवार या तर्क से नहीं, बल्कि वाणी की मधुरता और भाव से प्रकट होता है। मैं तुम दोनों की परीक्षा लूंगा, पर वह युद्ध की नहीं, वाणी की होगी। तुम दोनों एक-एक कर अपनी बात गीत के रूप में कहो।”
उसके शब्दों में अधिकार की गूंज थी, पर स्नेह का भाव नहीं था।
राजा विक्रमादित्य ने दोनों की वाणी सुनी और कहा, “जिसकी वाणी में प्रेम नहीं, वह झूठा है। और जिसमें त्याग और भाईचारा है, वही सच्चा है।” उन्होंने निर्णय दिया कि रत्न को दो भागों में बांटकर दोनों को दे दिया जाए।
इतना सुनते ही पहला व्यापारी घबरा गया, उसके चेहरे का रंग उड़ गया। उसने हाथ जोड़ लिए और बोला, “महाराज! रत्न मुझे नहीं चाहिए। कृपया मेरे भाई को ही दे दीजिए। बस हमारा रिश्ता बना रहे।”
राजा विक्रम मुस्कुराए और बोले, “अब सत्य सामने आ गया है। झूठा वही है जो स्वार्थ में अंधा हो जाता है, और सच्चा वही जो त्याग करता है।” उन्होंने सच्चे भाई को माणिक्य रत्न सौंपा और झूठे भाई को सच स्वीकारने के लिए क्षमा कर दिया।
वाणीवती ने राजा भोज की ओर देखा और कहा, “हे राजन! विक्रमादित्य की वाणी इतनी मधुर थी कि वह बिना दंड दिए अपराधी को सुधार सकते थे, और इतना न्यायप्रिय मन कि किसी के आँसू देखकर उनका निर्णय डगमगाता नहीं था। क्या आप भी ऐसा कर सकते हैं? क्या आपकी वाणी में भी इतना संयम, इतनी शांति, और उतनी ही दृढ़ता है?”
इतना कहकर वाणीवती शांत हो गई।
