अनुकंपा नियुक्ति - विवाहित बेटी भी है हकदार

Jitendra Kumar Sinha
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इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए स्पष्ट किया है कि केवल विवाहिता होने के आधार पर बेटी को अनुकंपा नियुक्ति से वंचित नहीं किया जा सकता है। यह फैसला उन हजारों परिवारों के लिए उम्मीद का किरण है, जिनकी बेटियां परिवार की असली सहारा होती हैं।

देवरिया निवासी चंदा देवी के पिता संपूर्णानंद पांडेय प्राथमिक विद्यालय गजहड़वा, ब्लॉक बनकटा, तहसील भाटपाररानी में सहायक अध्यापक पद पर कार्यरत थे। वर्ष 2014 में सेवा के दौरान ही उनका निधन हो गया। पिता की मृत्यु के बाद चंदा देवी ने अनुकंपा नियुक्ति के लिए आवेदन किया। लेकिन दिसंबर 2016 में जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी (बीएसए) ने उनका आवेदन यह कहते हुए खारिज कर दिया कि वे विवाहित हैं और शासनादेश 4 सितंबर 2000 के अनुसार विवाहित बेटियां अनुकंपा नियुक्ति की पात्र नहीं हैं।

चंदा देवी ने इस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी। मई 2025 में एकलपीठ ने उनकी याचिका खारिज कर दी। अदालत ने माना कि विवाहित बेटी भी पात्र हो सकती है, लेकिन चंदा देवी यह साबित नहीं कर पाईं कि वे अपने पति पर आश्रित नहीं हैं और पिता पर ही निर्भर थीं। साथ ही, यह भी कहा गया कि पिता की मृत्यु को 11 साल बीत चुके हैं, इसलिए दावा अब विचार योग्य नहीं है।

चंदा देवी ने इसके खिलाफ विशेष अपील दायर की। न्यायमूर्ति मनोज कुमार गुप्ता एवं न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्र की खंडपीठ ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि बीएसए ने चंदा देवी का आवेदन केवल इस आधार पर खारिज किया था कि वे विवाहित बेटी हैं। निर्भरता का प्रश्न उन्होंने अपने आदेश में उठाया ही नहीं था।

खंडपीठ ने स्मृति विमला श्रीवास्तव बनाम उप्र राज्य मामले का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि विवाहित बेटी को अनुकंपा नियुक्ति से वंचित करना उचित नहीं है। अदालत ने बीएसए को निर्देश दिया कि वे चंदा देवी के आवेदन पर आठ सप्ताह के भीतर पुनः विचार कर निर्णय लें।

यह निर्णय बताता है कि विवाह के बाद भी बेटी का अधिकार समाप्त नहीं हो जाता। कई बार विवाहित बेटियां ही अपने मायके की असली सहारा होती हैं। भविष्य में ऐसे ही मामलों में यह फैसला मार्गदर्शक सिद्ध होगा।

इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला न केवल चंदा देवी के लिए राहतभरा है बल्कि उन तमाम बेटियों के लिए भी मिसाल है, जिन्हें विवाहिता होने के नाम पर अब तक अनुकंपा नियुक्ति से वंचित किया जाता रहा। यह फैसला समाज में “बेटी बोझ नहीं, बराबरी की अधिकारी है” के संदेश को और मजबूत करता है।



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