महाराष्ट्र की विशेष एनआईए अदालत ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया है। एल्गार परिषद-माओवादी संबंध मामले में गिरफ्तार एक आरोपी को जेल में रहते हुए लैपटॉप इस्तेमाल करने की अनुमति दी गई है। अदालत ने अपने आदेश में साफ कहा है कि मुकदमे से जुड़े दस्तावेजों का आकार इतना बड़ा है कि उनकी फिजिकल कॉपी संभालना और पढ़ना व्यावहारिक रूप से कठिन है। ऐसे में आरोपी को न्यायिक प्रक्रिया में सही ढंग से तैयारी करने का अवसर मिलना चाहिए।
एल्गार परिषद-माओवादी लिंक केस कई वर्षों से सुर्खियों में रहा है। इस मामले में कई सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी आरोपित किए गए हैं। उन पर माओवादी संगठनों से संबंध रखने और देश विरोधी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप है। इसी प्रकरण में गिरफ्तार एक आरोपी ने अदालत से अपील की थी कि उसे अपने बचाव की तैयारी के लिए लैपटॉप उपलब्ध कराया जाए, क्योंकि हजारों पन्नों में फैले दस्तावेजों को केवल कागज पर पढ़ना और व्यवस्थित करना कठिन है।
विशेष एनआईए न्यायाधीश सीएस बाविस्कर ने आरोपी की दलीलें सुनने के बाद आदेश दिया कि उसे सीमित दायरे में लैपटॉप इस्तेमाल करने की अनुमति दी जाए। आरोपी केवल मुकदमे से जुड़े दस्तावेज देखने और व्यवस्थित करने के लिए ही लैपटॉप का उपयोग कर सकेगा। लैपटॉप पर इंटरनेट या किसी अन्य नेटवर्क सुविधा का उपयोग नहीं होगा। सुरक्षा एजेंसियों की मौजूदगी और निगरानी में ही लैपटॉप जेल के भीतर उपलब्ध कराया जाएगा।
यह फैसला केवल आरोपी के अधिकारों से नहीं जुड़ा है, बल्कि न्याय प्रक्रिया की पारदर्शिता और निष्पक्षता से भी जुड़ा हुआ है। आधुनिक मुकदमों में अक्सर लाखों पन्नों का डाटा होता है, जिसे डिजिटल रूप से ही व्यवस्थित किया जा सकता है। हर आरोपी को अपने बचाव का अधिकार है। यदि वह दस्तावेजों को ठीक से पढ़ और समझ नहीं पाएगा तो मुकदमा निष्पक्ष नहीं माना जाएगा। जब अदालतें खुद ई-फाइलिंग और डिजिटल दस्तावेजों की ओर बढ़ रही हैं, तब आरोपियों को भी उस सुविधा से वंचित नहीं किया जा सकता है।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया है कि इस सुविधा का दुरुपयोग न हो, इसके लिए सुरक्षा एजेंसियों को पूरी छूट दी गई है। लैपटॉप की जांच-पड़ताल, स्कैनिंग और मॉनिटरिंग की जाएगी ताकि कोई भी गैरकानूनी गतिविधि न हो सके।
मुंबई की विशेष अदालत का यह फैसला भारतीय न्याय व्यवस्था में एक नए अध्याय की तरह है। यह दिखाता है कि अदालतें तकनीकी जरूरतों और न्यायिक अधिकारों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रही हैं। एल्गार परिषद जैसे संवेदनशील मामलों में भी अगर आरोपी को निष्पक्ष सुनवाई के लिए आवश्यक साधन दिए जाते हैं, तो यह न केवल न्याय की मूल भावना को मजबूत करता है बल्कि लोकतांत्रिक ढांचे पर जनता का भरोसा भी कायम रखता है।
