मूर्ति निर्माण में प्लास्टर ऑफ पेरिस एव भारी धातुओं पर लगी रोक

Jitendra Kumar Sinha
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त्योहार भारत की संस्कृति और परंपरा की पहचान हैं। हर वर्ष गणेश चतुर्थी और दुर्गा पूजा के मौके पर पूरे देश में भव्य मूर्तियों की स्थापना की जाती है। लेकिन इन मूर्तियों के निर्माण में प्लास्टर ऑफ पेरिस (POP) और भारी धातुओं का उपयोग लंबे समय से पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा बना हुआ है। इसी को देखते हुए बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इस वर्ष मूर्ति निर्माण के लिए सख्त दिशा-निर्देश जारी किया है।

विशेषज्ञों के अनुसार, कई मूर्तिकार मूर्तियों को अधिक आकर्षक और टिकाऊ बनाने के लिए प्लास्टर ऑफ पेरिस, कैडमियम, आर्सेनिक, शीशा और क्रोमियम जैसी जहरीली धातुओं का इस्तेमाल करते हैं। ये तत्व पानी और हवा के संपर्क में आकर जहरीले रसायनों में बदल जाता है। मूर्ति विसर्जन के बाद नदी-तालाबों में घुलकर जल जीवों को नुकसान पहुंचाता है। लंबे समय में यह प्रदूषण मानव स्वास्थ्य पर भी बुरा असर डालता है।

बोर्ड ने स्पष्ट कहा है कि मूर्तियों के निर्माण में केवल मिट्टी और प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाएगा। मूर्ति की ऊंचाई 20 फुट से अधिक नहीं होनी चाहिए। पूजा पंडाल की ऊंचाई 40 फुट से अधिक नहीं बनाई जाएगी। पूजा के बाद बची गैर-जैव विघटनीय सामग्री को अलग से एकत्रित कर निपटाया जाएगा।

त्योहारों का उद्देश्य केवल धार्मिक आस्था की अभिव्यक्ति ही नहीं, बल्कि समाज और प्रकृति के बीच संतुलन बनाना भी है। यदि मूर्तियां मिट्टी और प्राकृतिक रंगों से बनाई जाएंगी तो विसर्जन के बाद वे पानी में आसानी से घुल जाएंगी। प्रदूषण कम होगा और जलाशयों की प्राकृतिक सुंदरता बनी रहेगी। आने वाली पीढ़ियों के लिए स्वच्छ वातावरण सुरक्षित रहेगा।

सरकार और बोर्ड के नियम तभी सफल होंगे जब समाज भी इसमें सक्रिय भागीदारी निभाएगा। लोगों को जागरूक होकर पर्यावरण मित्र मूर्तियों को ही अपनाना होगा। पूजा समितियों और आयोजकों को सुनिश्चित करना चाहिए कि पंडाल और मूर्ति निर्माण पूरी तरह नियमों के अनुरूप हों। युवाओं और बच्चों को भी पर्यावरण संरक्षण के महत्व पर शिक्षित करना जरूरी है।

गणेश चतुर्थी और दुर्गा पूजा सिर्फ धार्मिक उत्सव नहीं है, बल्कि समाज को एकजुट करने वाला पर्व हैं। यदि इन पर्वों के दौरान पर्यावरण का ध्यान रखें तो यह आने वाली पीढ़ियों के लिए सबसे बड़ा उपहार होगा। बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का यह कदम एक सकारात्मक पहल है, जो धार्मिक आस्था और पर्यावरणीय जिम्मेदारी दोनों के बीच संतुलन स्थापित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित होगा।


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