श्रीलंका ने सबरीमाला तीर्थयात्रा को दी आधिकारिक मान्यता

Jitendra Kumar Sinha
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भारत और श्रीलंका के सांस्कृतिक एव धार्मिक संबंध सदियों पुरानी है। दोनों देशों की आस्था और परंपराओं में कई समानताएं देखने को मिलती हैं। इसी कड़ी में एक महत्वपूर्ण निर्णय लेते हुए श्रीलंका के मंत्रिमंडल ने भारत के केरल राज्य में स्थित “सबरीमाला अयप्पा स्वामी मंदिर” की अपने नागरिकों द्वारा की जाने वाली वार्षिक तीर्थयात्रा को आधिकारिक मान्यता दे दी है। यह कदम न केवल धार्मिक स्वतंत्रता का सम्मान है, बल्कि दोनों देशों के बीच आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रिश्तों को और मजबूत करेगा।

केरल के पठानमथिट्टा ज़िले में स्थित सबरीमाला मंदिर भगवान अयप्पा को समर्पित है। यह दक्षिण भारत के सबसे प्रसिद्ध और पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है। यहां हर साल नवंबर से जनवरी के बीच लाखों श्रद्धालु 41 दिन की कड़ी तपस्या और व्रत के बाद ‘मंडला-मकरविलक्कु’ उत्सव के दौरान दर्शन के लिए पहुंचते हैं। खास बात यह है कि सबरीमाला की यात्रा में अनुशासन, संयम और भक्ति का विशेष महत्व होता है।

श्रीलंका के तमिल और सिंहली समुदायों में अयप्पा स्वामी के प्रति गहरी आस्था पाई जाती है। हर वर्ष लगभग 15,000 से अधिक श्रीलंकाई श्रद्धालु सबरीमाला की कठिन यात्रा पूरी करते हैं। वह विशेष तौर पर व्रत रखते हैं, पारंपरिक पोशाक धारण करते हैं और ‘इयप्पा स्वामी’ के नाम का जाप करते हुए पवित्र ‘इयप्पा माला’ पहनते हैं। यह यात्रा न केवल धार्मिक अनुभव है बल्कि आत्म-शुद्धि और मानसिक शांति का माध्यम भी है।

श्रीलंका के मंत्रिमंडल का यह निर्णय उनके नागरिकों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा और सुविधाओं के विस्तार की दिशा में एक बड़ा कदम है। मान्यता मिलने के बाद श्रद्धालुओं को यात्रा के लिए विशेष प्रशासनिक सहयोग, वीजा और यातायात सुविधाओं में आसानी मिलेगी। साथ ही, यह निर्णय धार्मिक पर्यटन को भी बढ़ावा देगा, जिससे भारत-श्रीलंका के बीच सांस्कृतिक संपर्क और गहरा होगा।

दोनों देशों का जुड़ाव केवल भूगोल या राजनीति से नहीं, बल्कि गहरी सांस्कृतिक और धार्मिक जड़ों से है। रामायण की कथा से लेकर बौद्ध धर्म के प्रसार तक, इनका इतिहास साझा रहा है। सबरीमाला तीर्थयात्रा में श्रीलंकाई नागरिकों की भागीदारी इस सांस्कृतिक सेतु को और मजबूत करती है।

श्रीलंका द्वारा सबरीमाला तीर्थयात्रा को आधिकारिक मान्यता देना केवल एक प्रशासनिक निर्णय नहीं है, बल्कि आस्था, परंपरा और सांस्कृतिक एकता का सम्मान है। यह कदम दोनों देशों के बीच धार्मिक पर्यटन को प्रोत्साहन देगा और आध्यात्मिक रिश्तों को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाएगा। इससे स्पष्ट है कि जब आस्था सीमाओं से परे होती है, तो वह दिलों को जोड़ने का सबसे सशक्त माध्यम बन जाता है।



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