ट्रंप-पुतिन की अलास्का वार्ता से एक ठंडी दौड़ निकलकर आई, जहां डोनाल्ड ट्रंप ने संवाद की दिशा बिल्कुल उल्टी कर दी अपनी प्राथमिकताओं को। उन्होंने युद्ध विराम के बजाय एक व्यापक शांति समझौते पर जोर दिया, जिसमें रूस ने सीधे मांग रखी—यूक्रेन को डोनबास का पूरा क्षेत्र छोड़ देना होगा, और बदले में मोर्चा स्थिर किया जाएगा। यह रूस की चाल समझ कर भी खतरनाक थी—लड़ाई थमे या न थमे, तेवर तो यहीं से तय हुआ कि यूक्रेन की सीमाएं उसकी मर्ज़ी से तय नहीं होंगी।
जेलेंस्की ने न केवल इस निजी तौर पर तय किए गए रास्ते को ठुकराया, बल्कि साफ कर दिया कि उनकी सीमा-अखंडता और संप्रभुता किसी सौदे के लिए नहीं छोड़ी जाएगी। उन्होंने कहा बातचीत उसी मोर्चा रेखा से शुरू हो—जहां लड़ाई अभी चल रही है—as a non-negotiable term, जिसे यूरोपीय देशों ने भी पूरा समर्थन दिया।
बयानबाजी के मुकाबले वास्तविकता ज्यादा धुरंधर नजर आई—यूरोप ने कड़ा रुख अख्तियार किया और कहा कि किसी भी वार्ता में यूक्रेन की भागीदारी अटूट होनी चाहिए। नाटो-लेवल की सुरक्षा गारंटी ही बात बने, नहीं तो चाहे सौ लाख शब्दबाजी हो, समाधान कहीं दूर रहेगा।
समय से पहले अलास्का की बैठक की तस्वीर साफ होने लगी—रूस को मिली कोर्टसी से ले कर, अमेरिका की दी गई गारंटी, सब एक राजनीतिक संतुलन के हिस्से कम और चाल-बल की बिसात ज़्यादा थी। अंतत: यह वार्ता यूक्रेन की कलम बंद करने की तेजी नहीं, बल्कि उसकी दृढ़ता की प्रमाणपत्र बनने जा रही थी।
