बेलगाम भाषा और राजनीति - बिहार की राजनीति में संवादहीनता का गिरता स्तर

Jitendra Kumar Sinha
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सृष्टि में भाषा वह अद्भुत और व्यवस्थित माध्यम है, जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचारों, भावनाओं और अनुभवों को दूसरों तक पहुँचाता है। यही भाषा अन्य जीव-जंतुओं से अलग करती है, एक सभ्य समाज का सदस्य बनाती है। भाषा केवल शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि समाज की संस्कृति, परंपरा और नैतिक मूल्यों का वाहक होती है। जिस समाज की भाषा जितनी मर्यादित और सभ्य होती है, उसका सामाजिक और राजनीतिक चरित्र भी उतना ही सशक्त और संतुलित होता है। परंतु जब यही भाषा बेलगाम हो जाती है, जब शब्द मर्यादाओं को तोड़कर अपमान और आक्रोश का हथियार बन जाता है, तब समाज का संतुलन बिगड़ने लगता है।

आज के दौर में देख रहे हैं कि भाषा का यह पतन सबसे अधिक राजनीति में दिखाई देता है। भारतीय संविधान में "असंसदीय भाषा" की स्पष्ट व्याख्या की गई है, परंतु जब संविधान के कथित संरक्षक ही इस मर्यादा को तार-तार करने लगें तो सामान्य जन का क्या कहना?

भारतीय राजनीति में भाषा हमेशा से जनसंवाद का प्रमुख साधन रहा है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महात्मा गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाषचंद्र बोस जैसे नेताओं ने अपनी भाषा और वाणी से जनमानस को प्रेरित किया। उनकी वाणी में आक्रोश था, परंतु अपशब्द नहीं था। उनके शब्दों में क्रांति की पुकार थी, परंतु व्यक्तिगत आक्षेप नहीं था।

संविधान सभा की बहसों में भी  दिखता था कि विचारों में मतभेद होते थे, परंतु भाषा की मर्यादा बनी रहती थी। विरोध प्रखर था, परंतु व्यक्तिगत स्तर पर कटाक्ष का स्तर इतना नीचे नहीं गिरता था। यह वह दौर था जब भाषा, विचार और संस्कृति का अद्भुत संगम दिखाई देता था। लेकिन जैसे-जैसे राजनीति में मूल्य-आधारित विमर्श कम हुआ, वैसे-वैसे भाषा का स्तर भी गिरता चला गया। सत्ता की राजनीति, जातीय समीकरण, और तात्कालिक लाभ की होड़ ने संवाद को टकराव में बदल दिया है।

बिहार हमेशा से राजनीतिक रूप से सक्रिय राज्य रहा है। यहाँ की राजनीति ने जयप्रकाश नारायण जैसे नेता दिए जिन्होंने सम्पूर्ण क्रांति का नारा देकर पूरे देश की राजनीति की दिशा बदल दी। परंतु आज का बिहार उस राजनीतिक परंपरा से बहुत दूर खड़ा दिखता है। हाल के वर्षों में बिहार की राजनीति में शब्दों का युद्ध इतना तीखा हो गया है कि कभी-कभी ऐसा लगता है मानो मुद्दे पीछे छूट गए हैं और केवल आरोप-प्रत्यारोप और अभद्र भाषा ही रह गई है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही एक-दूसरे पर व्यक्तिगत हमले करते हैं। यह स्थिति केवल बिहार की नहीं बल्कि पूरे देश की राजनीति में दिखाई देती है, परंतु बिहार में यह प्रवृत्ति कुछ अधिक ही दिखाई दे रही है।

बिहार की राजनीति में हाल ही में एक नई हलचल तब मची जब राजनीतिक रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर (PK) ने जदयू महासचिव मनीष वर्मा पर पूछे गए सवाल के जवाब में कहा कि "सड़क पर चलने वाले कुत्ते की बातों का वो जवाब नहीं देते हैं।" यह बयान मीडिया की सुर्खियों में छा गया। यह बयान सिर्फ एक व्यक्ति पर नहीं था, बल्कि पूरे राजनीतिक विमर्श के स्तर पर एक प्रश्नचिह्न था। लोकतंत्र में विरोधी विचारधारा का सम्मान करना और तर्क के आधार पर उत्तर देना ही लोकतांत्रिक मर्यादा है। जब नेता स्वयं संवाद से बचने लगते हैं और विपक्ष को तुच्छ शब्दों से संबोधित करने लगते हैं, तो यह लोकतंत्र की आत्मा पर आघात है।

लोकतंत्र में राजनीतिक संवाद का अर्थ है तर्क, तथ्य और वैचारिक स्पष्टता के साथ विरोध करना। परंतु आज संवाद की जगह व्यक्तिगत कटाक्ष, चरित्र हनन और अपशब्दों ने ले ली है। यह प्रवृत्ति खतरनाक है क्योंकि इससे राजनीति का उद्देश्य केवल सत्ता प्राप्ति तक सीमित हो जाता है। जनता के मुद्दे पीछे छूट जाते हैं और केवल "कौन किसे नीचा दिखा सकता है" की होड़ मच जाती है। यही कारण है कि आज मतदाता भी राजनीति से विमुख होने लगे हैं।

भारतीय संसद और विधानसभाओं में "असंसदीय शब्दावली" की एक सूची होती है। इस सूची में वे शब्द शामिल हैं जो किसी व्यक्ति, जाति, धर्म, या संस्था को अपमानित करते हैं। स्पीकर के पास यह अधिकार होता है कि वे ऐसे शब्दों को कार्यवाही से निकाल दें। परंतु जब नेता सोशल मीडिया या प्रेस कॉन्फ्रेंस में मर्यादा तोड़ने लगें तो उस पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता।

भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं है, बल्कि मानसिकता का दर्पण भी होती है। जब नेता अभद्र भाषा का प्रयोग करते हैं तो उनके समर्थक भी उसी शैली को अपनाने लगते हैं। इससे समाज में वैमनस्य बढ़ता है।

सोशल मीडिया ने इस समस्या को और जटिल बना दिया है। अब हर बयान तुरंत वायरल हो जाता है, और लोग अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार उसे बढ़ावा देते हैं। परिणामस्वरूप गाली-गलौज और ट्रोलिंग सामान्य हो गई है। यह लोकतांत्रिक बहस के लिए बेहद खतरनाक है।

देखा जाए तो इस पूरे खेल में बेवकूफ केवल मतदाता बनता है। क्योंकि वही इन नेताओं को चुनकर सत्ता में भेजता है। यदि मतदाता जाति, धर्म, या तात्कालिक लाभ के आधार पर वोट देगा तो ऐसे ही नेता चुनकर आएंगे। इसलिए आवश्यक है कि मतदाता जागरूक बने। केवल वादों और भाषणों के आधार पर नहीं, बल्कि उम्मीदवार के आचरण, उसकी भाषा और उसके कामकाज के आधार पर वोट दे। यही लोकतंत्र को सशक्त बनाने का एकमात्र तरीका है।

सभी दलों को मिलकर एक साझा आचार संहिता बनानी चाहिए जिसमें भाषा और संवाद की मर्यादाओं को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाए। चुनाव प्रचार के दौरान अभद्र भाषा का प्रयोग करने वाले उम्मीदवार पर चुनाव आयोग को तत्काल कार्रवाई करनी चाहिए। मीडिया को ऐसे बयानों को केवल सनसनी के लिए नहीं, बल्कि विश्लेषण के साथ दिखाना चाहिए ताकि जनता समझ सके कि यह गलत है। जनता को सोशल मीडिया और अन्य मंचों पर ऐसे बयानों का विरोध करना चाहिए ताकि नेता समझें कि जनता यह सब बर्दाश्त नहीं करेगी। नेताओं के लिए राजनीतिक शिष्टाचार का प्रशिक्षण होना चाहिए। जैसे सेना में कैडेट्स को आचार संहिता सिखाई जाती है, वैसे ही नेताओं को भी संवाद की मर्यादा सिखाई जानी चाहिए।

भाषा किसी भी लोकतंत्र की आत्मा होती है। जब भाषा सभ्य होती है तो लोकतंत्र मजबूत होता है। जब भाषा गिरती है तो लोकतंत्र भी कमजोर हो जाता है। आज आवश्यकता है कि राजनीति में फिर से संवाद का स्तर ऊँचा उठाया जाए। व्यक्तिगत हमलों की जगह मुद्दों पर बहस हो। अभद्रता की जगह शालीनता आए। तभी लोकतंत्र सच में जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा रहेगा। यदि यह परिवर्तन नहीं आया तो आने वाले समय में राजनीति केवल नारेबाजी, गाली-गलौज और व्यक्तिगत कटाक्ष तक सिमट जाएगी। यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। 



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