“भगवद गीता में भी जेहाद जैसा कुछ है और भगवान कृष्ण ने अर्जुन को जेहाद जैसा पाठ पढ़ाया था”। यह वाक्य मात्र एक भाषिक त्रुटि या अकादमिक अज्ञान नहीं है। यह उस मानसिक प्रवृत्ति का परिचायक है, जिसमें अपनी वैचारिक संकीर्णता, ऐतिहासिक अज्ञान और वैचारिक द्वेष को वैध ठहराने के लिए किसी महान ग्रंथ, संस्कृति या परंपरा को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाता है। यह कथन केवल गीता या सनातन धर्म का अपमान नहीं है, बल्कि यह भारतीय सभ्यता के मूल नैतिक ढाँचे पर सीधा प्रहार है। यह उस सोच की उपज है जो हर धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विमर्श को एक ही चश्मे से देखना चाहता है। वह चश्मा, जिसमें न आत्मानुशासन है, न कर्तव्यबोध और न ही करुणा।
भगवद गीता का जन्म महाभारत के युद्धभूमि में हुआ, यह सत्य है। किंतु गीता स्वयं युद्ध का ग्रंथ नहीं है, बल्कि विवेक, कर्तव्य और आत्मज्ञान का शाश्वत दर्शन है। अर्जुन युद्ध नहीं चाहता है। वह हथियार डाल देता है। उसके मन में मोह है, अपने स्वजनों को मारने का मोह, अपने गुरु और पितामह को देखकर उत्पन्न हुआ करुणा का भाव। यहीं श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध के लिए उकसाते नहीं हैं, बल्कि उसे धर्म का स्मरण कराते हैं। “क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ” (हे पार्थ, यह कायरता तुझे शोभा नहीं देती)। यहाँ युद्ध का आह्वान किसी धर्म-विरोधी के संहार के लिए नहीं है, बल्कि अन्याय के प्रतिकार के लिए है।
जेहाद की अवधारणा एक विशिष्ट धार्मिक ढाँचे में विकसित हुई, जिसमें ‘दारुल इस्लाम’ और ‘दारुल हरब’ जैसी श्रेणियाँ हैं। वहीं गीता में ऐसा कोई विभाजन नहीं है न आस्तिक बनाम नास्तिक, न हिंदू बनाम अधर्मी और न आस्था बनाम असहमति। गीता का युद्ध अधर्म के विरुद्ध धर्म का संघर्ष है, न कि किसी पंथ विशेष के विरुद्ध हिंसा का औचित्य। जेहाद का उद्देश्य विस्तार और वर्चस्व रहा है, जबकि गीता का उद्देश्य आत्मशुद्धि और सामाजिक संतुलन है।
भारतीय संस्कृति में “धर्म” का अर्थ केवल पूजा-पद्धति नहीं है, बल्कि धर्म का अर्थ है सत्य, न्याय, करुणा, कर्तव्य और संतुलन। राजा का धर्म, गृहस्थ का धर्म, संन्यासी का धर्म, सब अलग-अलग हैं। अर्जुन का धर्म क्षत्रिय के रूप में अन्याय के विरुद्ध खड़ा होना था। श्रीकृष्ण उसे यही स्मरण कराते हैं, न कि किसी मजहबी उन्माद में झोंकते हैं।
जब कोई गीता को जेहाद से जोड़ता है, तो वह वास्तव में अपने भीतर बह रही उस नदी को उजागर करता है, जिसमें ऐतिहासिक अज्ञान, सांस्कृतिक हीनभावना, वैचारिक द्वेष और राजनीतिक स्वार्थ एक साथ प्रवाहित होता है। ऐसे वक्तव्य न तो संवाद के लिए होते हैं, न ही सुधार के लिए। यह केवल विभाजन के बीज बोते हैं।
इतिहास साक्षी है कि हर युग में ऐसे जज्बाती, स्वार्थपरायण और आत्ममुग्ध व्यक्तित्व उभरे हैं। जिन्होंने संस्कृति को तोड़ा, इतिहास को विकृत किया और विचारों को हथियार बनाया, लेकिन समय की धारा अंततः सबको बहा ले जाती है। कृति ही शेष रहती है और वही तय करती है कि स्मृति सम्मान की होगी या आलोचना की।
भारत की संस्कृति अद्वितीय है। यहाँ शत्रु की भी मृत्यु पर कहा जाता है “ईश्वर उसकी आत्मा को शांति दे”। व्यक्ति कितना भी विरोधी क्यों न रहा हो, मृत्यु के बाद उसके लिए घृणा नहीं, प्रार्थना की जाती है। यह करुणा हमारी सभ्यता की आत्मा है।
भारत के पूर्व गृहमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता शिवराज पाटिल का निधन हुआ। एक ओर, वे भारतीय लोकतंत्र के महत्वपूर्ण पदों पर रहे। दूसरी ओर, उनके कार्यकाल में “भगवा आतंकवाद” जैसे शब्दों को सार्वजनिक विमर्श में स्थापित करने का प्रयास हुआ। यह शब्द न केवल सनातन संस्कृति पर आक्षेप था, बल्कि करोड़ों भारतीयों की आस्था को अपराध की कठघरे में खड़ा करने जैसा था।
‘भगवा’ भारतीय संस्कृति, त्याग, तपस्या और राष्ट्रबोध का प्रतीक है। उसे ‘आतंक’ के साथ जोड़ना केवल शब्दों का खेल नहीं था, यह एक सुनियोजित वैचारिक प्रयोग था, जिसका उद्देश्य था बहुसंख्यक समाज को अपराधबोध में डालना और ऐतिहासिक आक्रांताओं के अपराधों से ध्यान हटाना।
जब कोई व्यक्ति संवैधानिक पद पर होता है, तो उसके शब्द निजी नहीं होता। वह नीति बनते हैं, विमर्श गढ़ते हैं और समाज की दिशा तय करते हैं। ऐसे में यदि कोई विचारधारा किसी संस्कृति को हिंसा से जोड़ता है, तो वह केवल असहमति नहीं है बल्कि एक सामाजिक घाव बन जाता है।
इन सबके बावजूद, भारतीय समाज शिवराज पाटिल के निधन पर यही कहता है “ईश्वर उनकी आत्मा को अपने चरणों में स्थान दें।” यह विरोधाभास नहीं, सभ्यता की पराकाष्ठा है। हम कर्म की आलोचना करते हैं, आत्मा से घृणा नहीं।
सनातन परंपरा व्यक्ति-पूजा से अधिक विचार-विश्लेषण पर बल देती है। इसीलिए हम गलत विचारों का खंडन करते हैं, परंतु व्यक्ति के निधन पर मौन और मर्यादा रखते हैं।
आज जब धर्म को राजनीति से, संस्कृति को हिंसा से और इतिहास को वैचारिक हथियार से जोड़ा जा रहा है, तब गीता और भी प्रासंगिक हो जाता है। गीता सिखाती है कि “योगः कर्मसु कौशलम्” (कर्म में कुशलता ही योग है)।
इतिहास की अदालत में भाषण नहीं, पद नहीं बल्कि विचार और कर्म साक्ष्य होता है। गीता न जेहाद है, न युद्धघोष, वह मानवता का आत्मसंवाद है और सनातन संस्कृति मृत्यु के बाद भी घृणा नहीं है, बल्कि शांति की कामना करती है। यही उसकी सबसे बड़ी शक्ति है।
