महाराष्ट्र में हाल ही में एक घटना सामने आई, जहां एक बस चालक पर इसलिए हमला किया गया क्योंकि वह मराठी भाषा नहीं बोल रहा था। इस घटना के बाद महाराष्ट्र सरकार ने कर्नाटक की बस सेवाओं को निलंबित कर दिया है। इस विवाद ने दोनों राज्यों के बीच लंबे समय से चल रहे भाषा संबंधी मतभेदों को फिर से उजागर कर दिया है।
कर्नाटक में गैर-कन्नड़भाषियों पर अत्याचार का इतिहास
कर्नाटक में लंबे समय से गैर-कन्नड़भाषियों, विशेष रूप से उत्तर भारतीयों और दक्षिण भारतीय राज्यों के लोगों, पर अत्याचार की घटनाएं सामने आती रही हैं। कई बार देखा गया है कि ऑटो चालक, सरकारी दफ्तरों और अन्य सार्वजनिक सेवाओं में काम करने वाले लोग हिंदी या अंग्रेजी में बात करने से मना कर देते हैं। बेंगलुरु जैसे बड़े शहरों में भी कई बार उत्तर भारतीयों को निशाना बनाया गया है और उन पर कन्नड़ भाषा सीखने का दबाव डाला गया है।
क्या महाराष्ट्र ने कर्नाटक को उसी की दवा दी?
अगर महाराष्ट्र में मराठी न बोलने वाले कर्नाटक के बस चालक पर हमला हुआ है, तो इसे एक प्रकार से "उन्हें उन्हीं की दवा चखाने" जैसा देखा जा सकता है। कर्नाटक में जब हिंदी या अन्य भाषाएं बोलने वालों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है, तब राज्य सरकारें या स्थानीय नेता इसे भाषा संरक्षण के नाम पर सही ठहराते हैं। लेकिन जब यही स्थिति उनके खुद के लोगों के साथ दूसरे राज्य में होती है, तो इसे अन्याय करार दिया जाता है।
भाषाई असहिष्णुता बनाम सह-अस्तित्व
भारत विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों का देश है। लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं को जबरदस्ती थोपना या गैर-स्थानीय लोगों के साथ दुर्व्यवहार करना किसी भी राज्य के लिए सही नहीं है। कर्नाटक और महाराष्ट्र दोनों को इस मुद्दे पर आत्ममंथन करना चाहिए। क्या भाषा की राजनीति से राज्यों की छवि खराब नहीं हो रही? क्या क्षेत्रीयता को बढ़ावा देने से देश की एकता प्रभावित नहीं होगी?
कर्नाटक और महाराष्ट्र दोनों को इस प्रकार की घटनाओं से सीख लेकर अपनी नीतियों में सुधार करना चाहिए। अगर कर्नाटक चाहता है कि उसके नागरिकों के साथ अन्य राज्यों में अच्छा व्यवहार हो, तो उसे पहले अपने राज्य में भी गैर-कन्नड़भाषियों के साथ सम्मानजनक व्यवहार सुनिश्चित करना होगा। भाषा प्रेम गलत नहीं है, लेकिन जब वह असहिष्णुता का रूप ले लेता है, तो समाज में दरार पैदा होती है।