अक्सर राजनेताओं को कहते सुना जाता है कि स्वदेश की सुरत बदली है

Jitendra Kumar Sinha
0

 





सरकारें आती है और जाती है। सड़क, पुल, पुलिया बनी है - टूटती है और बन भी रही है, लेकिन कल-कारखाने नहीं लगी है और लग नहीं रही है। बेरोजगारी कमने का नाम नहीं ले रही है। वहीं देश के गरीबों की अभी तक तकदीर भी नही बदली है। किसान और गरीब जैसा था वैसा आज भी दिखता है, उनकी समस्याओं की सूची अभी भी लंबी की लंबी है। प्रतिबंधित रहने के वाबजूद भी देशी पाउच से लेकर विदेशी पाउच तक देश में टूथपेस्ट, क्रीम, पाउडर आदि से लेकर कोल्ड ड्रिंक्स तक ऐसे कई प्रोडक्ट है, पूरे देश में सहज उपलब्ध होता है। यह सोच कर मन हो जाता है विचलित और बेचैन।


बिहार सरकार कई योजनाओं को चलाई है, जिसमें साईकिल योजना, शिक्षा योजना, पोषाक योजना, वृद्धा पेंशन योजना, जयप्रकाश पेंशन योजना, पत्रकार सम्मान पेंशन योजना, पत्रकार बीमा योजना के अतिरिक्त अन्य कई योजनाएँ शामिल है, लेकिन सभी की राशि इतनी कम है, जिससे लगता है कि ऊँट के मुँह में जीरा का फोड़न। राजनेताओं द्वारा चुनाव के समय या उससे पहले भी, दिलाशा तो दी जाती है, लेकिन अमल नहीं होता है। 


अक्सर राजनेताओं को कहते सुना जाता है कि स्वदेश की सुरत बदली है। न्याय के साथ विकास हो रहा हैं। लेकिन हकीकत तो यह है कि अधिकांश जगहों पर लोग जल-जमाव के बीच जीने को विवश हैं। जल निकासी की समुचित व्यवस्था नहीं रहने के कारण, लोगों को काफी परेशानियाँ उठानी पड़ती है। जल निकासी की व्यवस्था कुशल प्रबंधन के तहत योजनाबद्ध तरीके से नहीं हो रही है। देखा जाय तो वदमाश लोग आज वेखौफ है, पुलिस को चुनौती देते हुए अपराधिक वारदातों को खुला अंजाम दे रहे हैं। कहने के लिए तो अपराध एवं अपराधियों की नकेल कसने के मकसद पर हमेशा समीक्षा होती है और समीक्षा में मौके पर लगाम कसने के लिए निर्देश भी दिए जाते हैं लेकिन इसके वावजूद भी घटनाओं में कमी नहीं दिखती, बल्कि बढ़ता ही जा रहा है। लगता है कि प्रशासन, महकमों की बातों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं। बढ़ रहे अपराध के ग्राफ इस बात को प्रमाणित करता है कि बढ़ती अपराधिक घटनाओं से, लोगों का विश्वास, पुलिस से दिन पर दिन उठता जा रहा है। 


दूर दराज देहात में बच्चे आज भी कुपोशन के शिकार हो रहे हैं। अस्पतालों में इसे देखा जा सकता है। आज भी देहात की महिलाएँ दो गज के चिथरों में और पुरूष दो हाथ की लंगोटी में रहने को विवश हैं। अगर राजनेता वादों पर थोड़ा बहुत भी अमल करती, तो आज लोगों की तकदीर और देश की तस्वीर वाकई में अलग रहती। भले ही सरकार सड़क बनाने की बात करती हो, लेकिन आज भी कई जगहों पर चचरी पुल पर जिन्दगी रेंग रही है। शिक्षा व्यवस्था तो चौपट हैं ही, भूमाफिया का भी कद बढ़ा है और प्रशासन उसके आगे नतमस्तक प्रतीत होता है। 


जाति और आरक्षण का खेल भी ऐसा ही है। कहने का तात्पर्य यह है कि देश की आजादी के समय से समस्यायें यथावत हैं। भले ही कागज पर तकदीर और तस्वीर बदल गई हो, यह अलग बात है, लेकिन यह कहा जा सकता है कि बदलती रही सत्ता, नहीं बदली और नहीं बदल रही गरीबों की तकदीर - गरीबी और बेरोजगारी। 


आज भी जिस घर में दादा किसान थे, तो पोता भी किसान है। जो हरवाहे का काम करता था, उसका पोता भी आज हरवाहे है। जो सूद के पैसे से जिन्दगी जीता था, उसके पोते भी सूद पर जिन्दगी जी रहा है। चाहे क्यों न वह, निजी लोन, बैंक लोन या सरकारी लोन हो। दुनियाँ चाँद पर घर बनाने की सोच रही है लेकिन दो जून की रोटी के जुगाड़ करने वाले पोते, आज भी दो जून की रोटी के जुगाड़ में ही जी रहा है। सरकारें आती हैं और बदलती है लेकिन गरीबी और बेरोजगारी जहां थी वहीं है। राजनीतिक पार्टियाँ बढ़ी ही नहीं है बल्कि दिनों दिन वेतहासा बढ़ रही है और अपनी पहचान विदेशों तक बना रही है।

---------


एक टिप्पणी भेजें

0टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Ok, Go it!
To Top