भीलूड़ा में धुलंडी के दिन रघुनाथ मंदिर के पास पत्थरों की राड खेली जाती है।वहीं डूंगरपुर के भीलूड़ा और सागवाड़ा में पत्थर और कंडे मारकर होली मनाया जाता है। सागवाड़ा शहर में धुलंडी के अगले दिन से पंचम तक अलग-अलग मोहल्लों में कंड़ों की राड खेलते हैं।
बांसवाड़ा के घाटोल में अलग तरह से होली मनाया जाता है। वहां सुबह चार बजे होलिका दहन के बाद बांसफोड़ समाज के लोग होली की अधजली लकड़ियों को एक-डेढ़ फीट के टुकड़ों में काट देते हैं। सुबह सात बजे लकड़ियों को दो ग्रुप बना एक-दूसरे पर फेंका जाता है।
डूंगरपुर के कोकापुर गांव में रंग खेलने से पहले अनूठी परंपरा का निर्वहन किया जाता है। यहां होली जलने के बाद दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व अंगारों पर चलने की परंपरा है। डूंगरपुर जिले के ओबनी गांव में होली के बाद पंचमी पर फुतरा पंचमी मनाते हैं। इस रस्म को मुख्यतौर पर बाह्मण, राजपूत और पाटीदार समाज मिलकर करते हैं। इसमें गांव के खुले स्थान पर बाजूर के सबसे ऊंचे पेड़ पर बाह्मण समाज की ओर से एक सफेद कपड़ा (फुतरा) बांधा जाता है। दोपहर में मेला के बाद गांव और तीनों समाज के युवा और अन्य लोग एकत्र होकर टोलियों में डोल नगाड़ों के साथ पुतरा बांधे स्थान पर पहुंचते हैं। जहां राजपूत समाज के लोग पेड़ पर चढ़ते हैं जिसे ब्राह्मण और पाटीदार समाज के युवा रोकने का प्रयास करते हैं।
इंगरपुर के बौरासी क्षेत्र में एकम से त्रयोदशी तक क्षेत्र के भचड़िया, देवरा मसूर, डेराभगत, मालाखीलड़ा, झरनी इंका पुनावाड़ा गांवों में भरने वाले इन मेलों में फुतरा छोड़ने का रिवाज है।
राजस्थान में जनजाति क्षेत्र की अनूठी होली अलग ही अंदाज में मनाई जाती है।
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