दुनिया के कई हिस्सों में लोग अब धर्म को वैसा नहीं मानते जैसे पहले माना जाता था। कई लोग खुद को किसी धर्म से अलग कर रहे हैं, और कुछ नए धर्म को अपना रहे हैं। लेकिन एक नई सामाजिक प्रवृत्ति सामने आ रही है "धर्म से पूरी तरह अलग हो जाना"।
धर्म परिवर्तन (Conversion) का अर्थ है एक धर्म को छोड़कर दूसरा धर्म अपनाना। इसके पीछे कभी आध्यात्मिक कारण होते हैं, तो कभी सामाजिक या आर्थिक मजबूरियाँ। वहीं धर्म त्याग (Disaffiliation) का अर्थ है कि व्यक्ति किसी भी धर्म को मानना ही बंद कर देता है। वह किसी धार्मिक समुदाय से खुद को जोड़कर नहीं देखता है। पूर्वी एशिया में विशेष रूप से धर्म त्यागने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रहा है, जो केवल व्यक्तिगत सोच का परिणाम नहीं है, बल्कि बड़े सामाजिक बदलाव का संकेत भी है।
हाल के वर्षों में हुए शोध और जनगणनाओं से यह स्पष्ट हो रहा है कि पूर्वी एशिया, विशेषकर हॉन्ग कॉन्ग, दक्षिण कोरिया, ताइवान और जापान जैसे देशों में बड़ी संख्या में लोग अपनी धार्मिक पहचान को या तो बदल रहे हैं या पूरी तरह से नकार रहे हैं। हॉन्ग कॉन्ग धर्म त्याग के मामले में शीर्ष पर है, एक रिसर्च के अनुसार, 53% लोग अपनी धार्मिक पहचान बदल चुके हैं, इनमें से 37% लोगों ने स्पष्ट रूप से कहा है कि वे किसी भी धर्म को नहीं मानते हैं। दक्षिण कोरिया तेजी से धर्म से दूरी बना रहा है, 35% दक्षिण कोरियाई लोग खुद को नास्तिक या धर्म-निरपेक्ष बताते हैं, युवा पीढ़ी खासकर चर्च और मंदिरों से दूरी बना रहे है। ताइवान अपनी परंपराओं से आधुनिकता की ओर जा रहा है, 42% लोगों ने अपनी धार्मिक पहचान बदली है, शिक्षित वर्ग और शहरी समाज में यह प्रवृत्ति ज्यादा देखा जा रहा है। जापान में 'धर्म' अब परंपरा भर रह गया है, जापान में 32% लोग अब खुद को किसी भी धार्मिक श्रेणी में नहीं रखते हैं, शिंतो और बौद्ध परंपराएँ अब सांस्कृतिक प्रतीक भर रह गई हैं।
इस तरह बढ़ते रुझान के पीछे कई गहरे कारण हो सकता है। आधुनिकीकरण और शिक्षा- जैसे-जैसे शिक्षा और वैज्ञानिक सोच बढ़ी है, लोग परंपरागत धार्मिक मान्यताओं को चुनौती देने लगे हैं। पूर्वी एशिया में शिक्षा का स्तर अत्यंत ऊँचा है और यह सीधे धार्मिक आस्था को प्रभावित कर रहा है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय- लोग अब खुद को एक "समूह" की बजाय एक व्यक्तिगत इकाई मानते हैं। धर्म को व्यक्तिगत पसंद की बजाय सामूहिक दबाव मानने की प्रवृत्ति बढ़ी है। धार्मिक संस्थाओं से मोहभंग- कई बार धार्मिक संस्थाएँ भ्रष्टाचार, कट्टरता या पाखंड में लिप्त दिखाई देता हैं। इससे भी आम लोगों का भरोसा उठ गया या उठ रहा है। तकनीक और सोशल मीडिया- इंटरनेट और सोशल मीडिया ने जानकारी के कई द्वार खोले हैं।
लोग अब दुनिया भर के विचारों और जीवन शैलियों से परिचित हो गए हैं, जिससे उनका धार्मिक दृष्टिकोण बदला है। आर्थिक दबाव और व्यस्त जीवन- शहरों की भागदौड़ में धार्मिक अनुष्ठानों के लिए समय नहीं बचता है। पूंजीवादी संस्कृति में धर्म कई बार गैर-जरूरी समझा जाता है।
यूरोप में 2017 के एक सर्वे के अनुसार, यूरोप में किसी भी देश में 40% से अधिक लोगों ने अपनी धार्मिक पहचान नहीं बदली थी। जबकि स्कैंडिनेवियन देशों (स्वीडन, डेनमार्क, नॉर्वे) में "नास्तिकता" तेजी से बढ़ी है, लेकिन यह गति एशिया जैसी नहीं है। अमेरिका मे लगभग 28% लोग खुद को अब अपने जन्म जात धर्म में नहीं मानते हैं लेकिन वहाँ अभी भी चर्च की सामाजिक पकड़ काफी मजबूत है।
पूर्वी एशिया के विपरीत, दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया (जैसे भारत, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, मलेशिया) में धर्म अभी भी जीवन का मुख्य हिस्सा है। भारत मे धर्म केवल आस्था नहीं, एक संस्कृति, परंपरा और सामाजिक पहचान भी है। अधिकांश लोग अपने धर्म के प्रति गहरे रूप से जुड़े हुए हैं। इंडोनेशिया दुनिया का सबसे बड़ा मुस्लिम देश है, जहाँ इस्लाम न केवल धर्म, बल्कि जीवनशैली भी है। म्यांमार, थाईलैंड, श्रीलंका में बौद्ध धर्म केवल धार्मिक नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा का प्रतीक है। इस क्षेत्र में धर्म केवल व्यक्तिगत आस्था नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना का आधार है। इसलिए यहां धर्म छोड़ने की प्रवृत्ति बहुत कम है।
धर्म त्याग को लेकर दो धारणाएँ प्रचलित हैं। एक पक्ष कहता है कि यह चेतावनी है कि धर्म अब लोगों के जीवन से बाहर हो रहा है। इससे सांस्कृतिक पतन, सामाजिक विघटन और नैतिक मूल्यों का ह्रास हो सकता है। दूसरा पक्ष का मानना है कि यह नवचेतना है, जहाँ व्यक्ति स्वयं तय करता है कि उसे क्या मानना है। यह एक तरह की आत्मनिर्भरता और विचार की स्वतंत्रता है।
पूर्वी एशिया में जो हो रहा है, वह महज संयोग नहीं, सामाजिक विकास की दिशा है। लोग अब केवल जन्म से मिले धर्म को ही नहीं, बल्कि चेतना और अनुभव से चुने गए मार्ग को भी महत्व दे रहे हैं। ऐसी स्थिति में धर्म का भविष्य शायद अब आस्था से अधिक सार्थकता और अनुभव पर निर्भर करेगा।