1947 — एक ऐसा साल जो भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गया। एक ओर भारत को मिली आज़ादी, तो दूसरी ओर हुआ विभाजन। एक ऐसा विभाजन, जिसने केवल ज़मीनें नहीं, बल्कि इंसानों, भावनाओं, संस्कृतियों और ख़ज़ानों तक को बाँट दिया। हम अक्सर भारत-पाकिस्तान विभाजन को केवल सीमाओं और रियासतों तक सीमित समझते हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि उस समय दोनों देशों के बीच पैसे और सोने का भी बँटवारा हुआ था?
आज़ादी के साथ आई एक नई समस्या: बँटवारा
जब 15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हुआ, तब ब्रिटिश सरकार ने भारत को दो हिस्सों में बाँटने का फैसला किया — भारत और पाकिस्तान। यह बँटवारा राजनीतिक था, धार्मिक था, और कहीं-कहीं तो पूरी तरह रक्तरंजित भी। लाखों लोग विस्थापित हुए, हजारों मारे गए, लेकिन इसके साथ-साथ एक और कठिन काम बाकी था — ब्रिटिश भारत की संपत्ति का न्यायपूर्ण बँटवारा।
यह संपत्ति केवल ज़मीन-जायदाद या सैन्य संसाधन नहीं थे, बल्कि ख़ज़ाना — यानी रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया में जमा धन, विदेशी मुद्रा भंडार और सोना — भी था।
वित्तीय बँटवारे की रूपरेखा
ब्रिटिश भारत का वित्तीय तंत्र उस समय रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) के अधीन था। और चौंकाने वाली बात यह है कि 1947 से 1 जुलाई 1948 तक पाकिस्तान का केंद्रीय बैंक भी RBI ही रहा। यानी एक साल तक भारत ही पाकिस्तान की मुद्रा छापता रहा और उसके वित्तीय संचालन को तकनीकी मदद देता रहा।
अब सवाल था — पाकिस्तान को कितनी राशि दी जाए?
ब्रिटिश सरकार के निर्देशों और विभाजन आयोग की सिफारिशों के अनुसार, ब्रिटिश भारत के कुल 4 अरब रुपए के नकद भंडार में से 75 करोड़ रुपए पाकिस्तान को देने का निर्णय हुआ।
पहला किस्त: 20 करोड़ रुपए
जब पाकिस्तान अस्तित्व में आया, तब तत्काल ज़रूरतों को देखते हुए भारत सरकार ने 20 करोड़ रुपए की पहली किस्त दे दी। यह रकम पाकिस्तान को मिली और उसमें कोई विवाद नहीं हुआ। उस समय सभी दलों ने इसे सामान्य प्रक्रिया माना।
लेकिन फिर आया कश्मीर और विवाद
1947 के अंत तक भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर तनाव शुरू हो चुका था। अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान समर्थित कबीलाइयों ने कश्मीर पर हमला कर दिया। महाराजा हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी, और इस तरह कश्मीर भारत में विलय हुआ।
इस हमले के बाद जब पाकिस्तान को बाकी के 55 करोड़ रुपए देने की बारी आई, तो भारत में भारी विरोध हुआ। गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने साफ कहा कि जब पाकिस्तान भारत के खिलाफ युद्ध जैसी स्थिति पैदा कर रहा है, तब उसे इतनी बड़ी रकम देना राष्ट्रहित में नहीं होगा।
इस निर्णय पर तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू और गांधी के विचार अलग थे।
गांधी का सत्याग्रह और भूख हड़ताल
गांधी को लगा कि भारत को अपना वादा निभाना चाहिए, चाहे पाकिस्तान की नीति कुछ भी हो। उन्होंने इसे नैतिकता का प्रश्न बताया। जब सरकार ने भुगतान रोकने का निर्णय लिया, तो गांधी ने 12 जनवरी 1948 को अनशन शुरू कर दिया।
उनका कहना था, "अगर भारत वचन निभाने में असफल रहता है, तो यह हमारी आत्मा की हार होगी।"
इस भूख हड़ताल से पूरे देश में हड़कंप मच गया। अंततः सरकार को झुकना पड़ा और 16 जनवरी को 55 करोड़ रुपए पाकिस्तान को देने की घोषणा हुई।
गांधी की हत्या और साज़िश की स्याही
लेकिन यह निर्णय सभी को रास नहीं आया। 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या कर दी, और बाद में अपने बयान में कहा कि गांधी का पाकिस्तान को पैसे दिलवाना ही एक मुख्य कारण था जिसने उसे यह कदम उठाने को प्रेरित किया।
इस घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया और यह साबित कर दिया कि पैसे का बँटवारा केवल आर्थिक नहीं, राजनीतिक और भावनात्मक मुद्दा भी था।
भारत को क्या मिला?
भारत ने पाकिस्तान को 75 करोड़ रुपए देने के बदले ब्रिटिश भारत के लगभग सभी प्रशासनिक भवन, सैन्य संसाधन, नौकरशाही तंत्र, रेलवे संपत्ति और कई अन्य संस्थाएं अपने नियंत्रण में लीं। इस पर पाकिस्तान ने कई बार आपत्ति जताई, लेकिन ब्रिटिश सरकार की मध्यस्थता से यह मसले सुलझते रहे।
सोने का क्या हुआ?
उस समय भारत के पास लगभग 947 टन सोना था, जो ब्रिटिश भारत की संपत्ति का हिस्सा था। लेकिन सोने का बँटवारा नहीं हुआ, क्योंकि पाकिस्तान को केवल नकदी में हिस्सा देना तय हुआ था। इस निर्णय के पीछे तर्क यह था कि पाकिस्तान की तत्काल ज़रूरत नकदी की थी, न कि भौतिक संपत्ति की।
हालांकि पाकिस्तान ने बाद में ब्रिटिश सरकार से आग्रह किया कि उसे भी सोने में हिस्सेदारी दी जाए, लेकिन ब्रिटिश अधिकारियों और भारत की आपत्तियों के चलते यह मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया।
विभाजन के बाद भी जारी रहा बकाया विवाद
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मुद्रा: पाकिस्तान ने बाद में खुद का केंद्रीय बैंक स्थापित किया, लेकिन कई वर्षों तक दोनों देशों की मुद्राओं की पारस्परिक विनिमय दर और बैंकिंग विनियम को लेकर विवाद चलता रहा।
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संपत्तियाँ और कंपनियाँ: विभाजन के बाद कई कंपनियों और संस्थानों की संपत्तियाँ दोनों देशों में रह गईं, जिनका निपटान वर्षों तक अधर में लटका रहा।
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विदेशी कर्ज और देनदारियाँ: भारत ने विभाजन के बाद पाकिस्तान के हिस्से के विदेशी कर्ज को भी चुकाने में सहायता दी, ताकि अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान की विश्वसनीयता बनी रहे।
यह केवल धन का बँटवारा नहीं था
भारत और पाकिस्तान के बीच पैसे और सोने का बँटवारा केवल आर्थिक लेन-देन नहीं था। यह एक राजनीतिक, नैतिक और ऐतिहासिक निर्णय था जिसने दोनों देशों की नीति, मनोवृति और संबंधों की दिशा को प्रभावित किया।
गांधी का यह मानना कि "वचन निभाना ही असली स्वतंत्रता है", और पटेल की यह सोच कि "राष्ट्र की सुरक्षा पहले है" — दोनों विचार एक ही राष्ट्र के दो सत्य थे। और इसी द्वंद्व में आकार लिया स्वतंत्र भारत का प्रारंभिक चरित्र।
आज जब हम भारत-पाक रिश्तों को देखते हैं, तो समझना ज़रूरी है कि उनका आधार केवल सीमाओं पर नहीं, बल्कि एक साझा इतिहास, संघर्ष और ऐसे निर्णयों पर भी है, जिनका प्रभाव दशकों तक रहा है।