1960 की संधि: कैसे हुआ भारत-पाक जल समझौता

Jitendra Kumar Sinha
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भारत और पाकिस्तान के रिश्तों की जटिलता को समझने के लिए यदि किसी एक मुद्दे पर ध्यान केंद्रित करना हो, तो वह है "सिंधु जल संधि" — एक ऐसी संधि जिसे दुनिया की सबसे सफल जल संधियों में गिना जाता है, लेकिन जो समय के साथ विवादों और आलोचनाओं में भी घिरती चली गई। यह लेख आपको इस संधि के इतिहास, लाभ-हानियों, विवादों और भविष्य की संभावनाओं की गहराई में ले जाएगा।


इतिहास की धारा में सिंधु

सिंधु नदी की घाटी को सभ्यता की जननी माना जाता है। आज जहां पाकिस्तान और भारत हैं, वहीं हज़ारों साल पहले सिंधु घाटी सभ्यता फली-फूली। सिंधु नदी और उसकी सहायक नदियाँ — झेलम, चिनाब, रावी, ब्यास और सतलुज — पूरे उत्तर भारत और पाकिस्तान के कृषि, जीवनशैली और संस्कृति की रीढ़ रही हैं।

1947 में जब भारत और पाकिस्तान का विभाजन हुआ, तो केवल ज़मीन ही नहीं, नदियों के जल स्रोत भी बंटे। उस समय तक अंग्रेज़ों द्वारा निर्मित सिंचाई व्यवस्था पूरे पंजाब और सिंध की धरती को सींच रही थी। विभाजन के बाद सवाल खड़ा हुआ — इन नदियों का पानी अब कौन इस्तेमाल करेगा?


कैसे हुई सिंधु जल संधि

जल विवाद की गंभीरता को देखते हुए, विश्व बैंक की मध्यस्थता में भारत और पाकिस्तान के बीच 19 सितंबर 1960 को सिंधु जल संधि पर हस्ताक्षर हुए। इस ऐतिहासिक समझौते पर भारत की ओर से प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान की ओर से तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान ने दस्तखत किए।

संधि के अनुसार, सिंधु प्रणाली की छह नदियों में से तीन पूर्वी नदियाँ — रावी, ब्यास और सतलुज — भारत को दी गईं और तीन पश्चिमी नदियाँ — सिंधु, झेलम और चिनाब — पाकिस्तान को। भारत को पश्चिमी नदियों के जल का सीमित उपयोग (जैसे सिंचाई, घरेलू प्रयोग और जलविद्युत) की अनुमति मिली, लेकिन जल के मुख्य उपयोग का अधिकार पाकिस्तान को दिया गया।


लाभ: संधि के सकारात्मक पहलू

सिंधु जल संधि को उस दौर की एक बड़ी कूटनीतिक सफलता माना गया।

  • युद्ध के समय भी कायम: 1965, 1971 और 1999 के युद्धों के बावजूद यह संधि कायम रही। दोनों देशों के बीच बातचीत का एक माध्यम बना रहा।

  • स्थायित्व और पूर्वानुमान: पाकिस्तान को यह आश्वासन मिला कि उसके कृषि और पीने के पानी के स्रोत स्थायी रहेंगे।

  • विश्व बैंक की भूमिका: विश्व बैंक ने न केवल मध्यस्थता की, बल्कि शुरूआती तकनीकी और आर्थिक सहायता भी दी, जिससे संधि मजबूत हुई।

  • जल प्रबंधन की मिसाल: यह संधि एक उदाहरण बनी कि दो शत्रुतापूर्ण देश भी जल जैसे संवेदनशील मुद्दे पर समझौता कर सकते हैं।


नुकसान और आलोचनाएँ

समय के साथ इस संधि की कई आलोचनाएँ भी सामने आईं — खासतौर पर भारत के दृष्टिकोण से।

  • भारत की सीमित हिस्सेदारी: भारत को कुल जल का मात्र 20% ही मिलता है, जबकि तीनों पश्चिमी नदियाँ भारत से होकर बहती हैं।

  • कश्मीर घाटी में बाधाएँ: जम्मू-कश्मीर के कई इलाकों में सिंचाई और जलविद्युत परियोजनाओं को इस संधि के कारण सीमित किया गया, जिससे क्षेत्रीय विकास प्रभावित हुआ।

  • तकनीकी प्रगति से असंगत: 1960 में बनी यह संधि आधुनिक समय की जल प्रबंधन तकनीकों, जलवायु परिवर्तन और जनसंख्या वृद्धि के दबावों को ध्यान में नहीं रखती।

  • राजनीतिक दबाव: हर बार जब भारत-पाकिस्तान के संबंध बिगड़ते हैं, भारत में यह मांग उठती है कि संधि को रद्द किया जाए या उसमें संशोधन किया जाए, लेकिन कानूनी और अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के चलते भारत हाथ बांधे रहता है।


विवादों की धार

कई बार भारत द्वारा बनायी गई जलविद्युत परियोजनाओं पर पाकिस्तान ने आपत्ति जताई — जैसे किशनगंगा (झेलम की सहायक नदी) और रटले (चिनाब) परियोजनाएं। पाकिस्तान का दावा होता है कि भारत इन नदियों का प्रवाह रोककर संधि का उल्लंघन कर रहा है। भारत का कहना है कि वह केवल "रन-ऑफ-रिवर" प्रोजेक्ट बना रहा है, जो संधि के अनुसार वैध हैं।

पाकिस्तान कई बार विश्व बैंक के पास गया, और संधि की व्याख्या को लेकर मध्यस्थता की मांग की। वहीं भारत ने संधि के समाधान तंत्र (Dispute Resolution Mechanism) में बदलाव की मांग की है, जिससे कई मामलों में गतिरोध पैदा हुआ।


हालिया घटनाक्रम

2023 में भारत ने पहली बार यह संकेत दिया कि वह संधि पर पुनर्विचार कर सकता है। जल शक्ति मंत्रालय ने पाकिस्तान को नोटिस भेजा कि 62 साल पुरानी संधि की कुछ शर्तों पर पुनः वार्ता की आवश्यकता है। यह एक महत्वपूर्ण कूटनीतिक संकेत था कि भारत अब इस संधि को "पत्थर की लकीर" नहीं मानता।


पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन

जलवायु परिवर्तन ने सिंधु नदी प्रणाली को और अधिक संवेदनशील बना दिया है। ग्लेशियरों के पिघलने, बारिश के पैटर्न में बदलाव और गर्मियों में जल की अधिक मांग ने इस संधि की व्यवहारिकता को चुनौती दी है। भविष्य में यदि नदियों का प्रवाह कम हुआ, तो दोनों देशों में जल संघर्ष और भी तीव्र हो सकता है।


भारत की स्थिति और रणनीति

भारत की नीतियों में हाल के वर्षों में कुछ परिवर्तन दिखाई देते हैं। अब वह अपने हिस्से के पानी का पूरा उपयोग करने की ओर बढ़ रहा है — खासकर जम्मू-कश्मीर और पंजाब में छोटे-बड़े जलविद्युत प्रोजेक्ट्स, लिंक नहरें और जल भंडारण योजनाएं तैयार की जा रही हैं। भारत अब यह स्पष्ट करना चाहता है कि संधि का पालन करते हुए भी वह अपने अधिकारों का पूरा उपयोग करेगा।


पाकिस्तान की चिंताएँ

पाकिस्तान के लिए सिंधु जल संधि जीवनरेखा जैसी है। उसका कृषि तंत्र मुख्यतः सिंधु प्रणाली पर निर्भर है। यदि भारत अपने हिस्से का जल पूरी तरह उपयोग करने लगे, तो पाकिस्तान को पानी की भारी कमी का सामना करना पड़ सकता है। इसीलिए, वह हर परियोजना पर आपत्ति जताता है — चाहे वह तकनीकी रूप से संधि के अंतर्गत हो।


क्या संधि को रद्द किया जा सकता है?

कानूनी रूप से सिंधु जल संधि एक अंतरराष्ट्रीय समझौता है। इसे एकतरफा रद्द करना भारत के लिए आसान नहीं है। यदि ऐसा किया जाए तो भारत की वैश्विक छवि पर भी असर पड़ सकता है, और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कानूनी कार्रवाई की आशंका भी होती है। साथ ही, पाकिस्तान की प्रतिक्रिया भी आक्रामक हो सकती है, जिससे क्षेत्रीय तनाव और बढ़ सकता है।


आगे की राह: बदलाव की ज़रूरत?

सिंधु जल संधि को लेकर कुछ विशेषज्ञ यह सुझाव देते हैं कि समय आ गया है जब इसे पुनः परिभाषित किया जाए। इसमें निम्नलिखित बातें शामिल हो सकती हैं:

  • पुनः वार्ता और संशोधन: दोनों देशों को नई जलवायु वास्तविकताओं के आधार पर कुछ शर्तों में परिवर्तन करना चाहिए।

  • तकनीकी सहयोग: जल प्रवाह, जलवायु डेटा और परियोजनाओं की पारदर्शिता को बढ़ावा देना।

  • संयुक्त निगरानी तंत्र: दोनों देशों के इंजीनियर और वैज्ञानिक संयुक्त रूप से निगरानी करें, जिससे संदेह और गलतफहमियां न हों।

  • जल कूटनीति का विस्तार: केवल सिंधु नहीं, बल्कि अन्य साझा जल स्रोतों पर भी बातचीत की पहल की जाए।


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