सिंधु जल संधि पर पुनर्विचार ज़रूरी: भारत की घटती हिस्सेदारी पर वैज्ञानिकों की चेतावनी

Jitendra Kumar Sinha
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भारत और पाकिस्तान के बीच 1960 में हस्ताक्षरित सिंधु जल संधि, जो अब तक दोनों देशों के बीच जल बंटवारे का आधार रही है, वर्तमान में जलवायु परिवर्तन और ग्लेशियरों के पिघलने के कारण नए संकट का सामना कर रही है। प्रमुख ग्लेशियोलॉजिस्ट अनिल वी. कुलकर्णी ने चेतावनी दी है कि इस संधि में भारत की जल हिस्सेदारी वास्तविकता में घटकर मात्र 5% रह गई है, जबकि संधि के अनुसार यह 20% होनी चाहिए।


जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने के कारण सिंधु नदी प्रणाली में जल प्रवाह में असंतुलन उत्पन्न हो रहा है। विशेष रूप से पूर्वी नदियों — रावी, ब्यास और सतलुज — के ग्लेशियर अपेक्षाकृत कम ऊंचाई पर स्थित हैं और अधिक दर से द्रव्यमान खो रहे हैं, जिससे इन नदियों में जल प्रवाह में कमी आ रही है। इसके विपरीत, पश्चिमी नदियों — सिंधु, झेलम और चिनाब — के ग्लेशियर उच्च ऊंचाई पर स्थित हैं और अपेक्षाकृत स्थिर हैं, जिससे पाकिस्तान को अधिक जल उपलब्ध हो रहा है।


भारत की जल हिस्सेदारी में गिरावट

अनिल कुलकर्णी के अनुसार, "मूल संधि में कहा गया है कि भारत को 20 प्रतिशत पानी आवंटित किया जाएगा, लेकिन अगर आप वास्तव में पूर्वी नदी घाटियों में ग्लेशियर द्वारा संग्रहित पानी की मात्रा को देखें, तो यह 20 प्रतिशत नहीं बल्कि केवल 5% है, और ग्लेशियर का 95 प्रतिशत पानी पश्चिमी नदी घाटियों में संग्रहीत है।"


संधि पर पुनर्विचार की आवश्यकता

जलवायु परिवर्तन और जल प्रवाह में हो रहे बदलावों को देखते हुए, विशेषज्ञों का मानना है कि सिंधु जल संधि पर पुनर्विचार आवश्यक है। एक संसदीय समिति ने भी सरकार से इस संधि को फिर से परिभाषित करने की सिफारिश की है, ताकि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को ध्यान में रखते हुए जल बंटवारे की नई व्यवस्था की जा सके।


सिंधु जल संधि, जो दशकों से भारत और पाकिस्तान के बीच जल बंटवारे का आधार रही है, अब जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न नई चुनौतियों का सामना कर रही है। भारत की जल हिस्सेदारी में हो रही गिरावट और ग्लेशियरों के पिघलने के कारण जल प्रवाह में हो रहे बदलावों को देखते हुए, इस संधि पर पुनर्विचार और आवश्यक संशोधन समय की मांग है।


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