भारतवर्ष की संस्कृति विविधताओं से परिपूर्ण है। हर राज्य, हर गांव अपने आप में अद्वितीयता समेटे हुए है। लेकिन बिहार के बक्सर जिले के अंतर्गत सिमरी प्रखंड से लगभग 12 किलोमीटर दूर बसे एक छोटे से गांव गंगौली की बात ही कुछ और है। यह गांव तीन ऐसे नियमों का पालन करता है जो ना केवल भारत, बल्कि दुनिया के किसी भी हिस्से में कम ही देखने को मिलता हैं। यहां शवों को जलाया नहीं जाता है, गाय के बछड़ों का बंध्याकरण नहीं होता है और मांसाहारी भोजन घर के भीतर नहीं पकता है । यह परंपराएं केवल सामाजिक नियम भर नहीं हैं, बल्कि 150 वर्षों से चली आ रही तप, त्याग और आस्था से जुड़ी एक गाथा है।
गंगौली गांव पहले प्राकृतिक आपदाओं से त्रस्त था। गंगा नदी के कटाव, अगलगी और अकाल जैसी समस्याओं ने ग्रामीणों का जीवन कठिन बना दिया था। गांव खाली होने की कगार पर था। इसी संकट के समय गांव में एक बाल संयासी हरेराम ब्रह्मचारी का आगमन हुआ। उन्होंने गांव की पीड़ा को समझा और तीन नियमों का पालन कराने के बदले अपने तपोबल से गंगा की दिशा बदल दी। यह कोई साधारण घटना नहीं थी। गांव वालों ने आश्चर्य और भक्ति के साथ इस परिवर्तन को देखा और संत द्वारा सुझाए गए तीन नियमों को गांव की नियति मान कर स्वीकार कर लिया।
भारतीय संस्कृति में अंत्येष्टि संस्कार के अंतर्गत शव को अग्नि को समर्पित करने की परंपरा रही है। लेकिन गंगौली इस परंपरा से हटकर चलता है। गांव के किसी भी धर्म, जाति या वर्ग के व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसका अंतिम संस्कार मुखाग्नि देने के बाद शव को गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है। उसे जलाया नहीं जाता है। हरेराम ब्रह्मचारी के अनुसार, यह नियम गांव को अग्नि आपदा से बचाने के लिए था। चूंकि गांव में बार-बार आग लगने की घटनाएं हो रही थी, इसलिए अग्नि को शांत करने हेतु यह नियम बनाया गया। चाहे धनी हो या गरीब, हिन्दू हो या मुस्लिम सभी इस नियम का समान रूप से पालन करते हैं। अब यह परंपरा गाँव की पहचान बन चुका है।
गंगौली गांव में गाय को केवल पशु नहीं, बल्कि गौमाता का दर्जा प्राप्त है। यही कारण है कि यहां गाय के संतान विशेषकर बछड़े का बंध्याकरण करना निषिद्ध है। हरेराम ब्रह्मचारी ने कहा था कि अगर किसी भी प्राणी की प्राकृतिक प्रजनन प्रणाली में हस्तक्षेप किया गया, तो इससे गाँव में शारीरिक और मानसिक रोग बढ़ेंगे। इसलिए गांव ने तय किया कि चाहे कितने भी बछड़े हों, उनका बंध्याकरण नहीं किया जाएगा। गांव में हर परिवार इस नियम का सम्मान करता है। सरकार की नीतियों के तहत पशु नसबंदी के कार्यक्रमों का बहिष्कार गांववाले खुलेआम करते हैं।
भारत में खानपान की परंपराएं विविध हैं। लेकिन गंगौली गांव के लोगों ने अपने खानपान में सांस्कृतिक मर्यादा तय कर रखी है। अगर कोई गांववासी मांसाहारी भोजन करना चाहता है तो वह भोजन अपने घर के बाहर पकाता है। किसी भी परिस्थिति में घर की चारदीवारी के भीतर मांस नहीं पकाया जाता है। संयासी हरेराम ब्रह्मचारी के अनुसार, मांसाहार से वातावरण में तमस बढ़ता है, जिससे मानसिक अस्थिरता और आपसी द्वेष जन्म लेता है। इनसे बचाव हेतु यह नियम बनाया गया है। आज भी गांव में कोई मांसाहार करना चाहे, तो वह खुले स्थान पर या घर से दूर स्थान पर भोजन तैयार करता है। गांव के अंदर किसी घर से मांस की खुशबू नहीं आती है।
हरेराम ब्रह्मचारी के निधन के बाद कुछ वर्षों तक गांव में शांति बनी रही। लेकिन एक समय ऐसा आया जब अचानक अग्निकांड फिर शुरू हो गया। खलिहानों से लेकर घरों तक आग की लपटें उठने लगीं। एक बार फिर गांव संकट में था। गांव में संत शिरोमणि बिहारी जी महाराज का आगमन हुआ। उन्होंने विशाल अग्नियज्ञ का आयोजन कराया और गांव की परंपराओं को पुनः जीवंत करने का आह्वान किया। यज्ञ के बाद आग की घटनाएं थम गईं और आज तक गांव शांतिपूर्ण तरीके से जीवन बिता रहा है।
गंगौली गांव की परंपराएं केवल अंधविश्वास नहीं हैं, बल्कि इनके पीछे गहन वैज्ञानिक और सामाजिक कारण भी छिपे हैं। शव को गंगा में प्रवाहित करने से वनों का कटाव रुकता है और पर्यावरण पर बोझ नहीं बढ़ता है। बंध्याकरण नहीं करने से प्राकृतिक संतुलन बना रहता है, और पशुओं के प्रति करुणा की भावना उत्पन्न होता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह निर्णय सही है, क्योंकि मांसाहार से संबंधित गंध और संक्रमण का खतरा कम होता है।
आज जब शहरीकरण, आधुनिकता और तकनीकी विकास के युग में परंपराएं धूमिल हो रही हैं, गंगौली गांव संस्कार और आस्था की मिसाल बनकर खड़ा है। यहां का हर युवा, बुजुर्ग और बच्चा इन नियमों का पालन गर्व से करता है। यह परंपराएं कानून या दबाव का परिणाम नहीं हैं, बल्कि गांव की आस्था, परंपरा और अनुभव से उपजे हुए 'संस्कार' हैं।
गंगौली गांव की कहानी कोई परीकथा नहीं है, यह उस आस्था और अनुशासन का प्रतीक है जो किसी भी समाज को सुरक्षित, समृद्ध और संतुलित बना सकता है। संयासी हरेराम ब्रह्मचारी की दृष्टि, ग्रामीणों की आस्था और संत बिहारी जी महाराज की पुनःस्थापना ने इस गांव को परंपरा और पर्यावरण के अद्भुत संगम में बदल दिया है।