भारत में जातिगत संरचना केवल हिन्दू समाज तक सीमित नहीं है। मुस्लिम समुदाय भी जातिगत वर्गों में बंटा हुआ है, जिसमें एक बड़ा तबका 'पसमान्दा' मुसलमानों का है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जातिगत जनगणना को लेकर बयान दिया गया है, उससे राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रों में नई बहस छिड़ गई है।
'पसमान्दा' शब्द उर्दू से लिया गया है, जिसका अर्थ होता है, पिछड़ा, वंचित या पीड़ित। भारतीय मुस्लिम समाज में यह शब्द उन मुसलमानों के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं। इसमें शेख, अंसारी, मंमद, हलालखोर, राइन, कुरैशी, धोबी, मिर्शकार जैसे पेशेवर जातियाँ शामिल हैं। मुसलमानों के अंदर करीब 80% आबादी पसमान्दा से है। शेष 20% आबादी 'अशराफ' यानी सैयद, पठान, शेख, मुगल आदि उच्चवर्गीय है।
भारत में जातिगत जनगणना एक लंबा बहस का विषय रहा है। वर्ष 2011 में कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार ने इसे शुरू किया था, लेकिन उस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया। अब एनडीए की नरेन्द्र मोदी सरकार ने पसमान्दा मुस्लिमों के संदर्भ में जनगणना की बात करना एक बड़ा राजनीतिक और सामाजिक संकेत दिया है। यदि यह जनगणना होती है तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि मुस्लिम समुदाय के भीतर कौन-सा तबका कितनी संख्या में है। इससे यह भी उजागर होगा कि कौन-से मुस्लिम वाकई में सामाजिक न्याय की योजनाओं के हकदार हैं।
19वीं सदी के मुस्लिम समाज में वर्गभेद को स्पष्ट रूप से रेखांकित करने वाले व्यक्ति सर सैयद अहमद खान थे। उन्होंने 'कमजात' शब्द का प्रयोग किया और पसमान्दा मुसलमानों की शिक्षा और समाज में भागीदारी को कमतर माना था। सर सैयद ने अंग्रेजों से करीबी बनाते हुए अशराफ तबके को उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित किया था। उन्होंने पसमान्दा तबके को परंपरागत मदरसों में ही सीमित रखने का सुझाव दिया था। 1857 की क्रांति को उन्होंने “गदर” करार दिया और इसके मुस्लिम नेतृत्व की आलोचना की थी। यह दृष्टिकोण आज भी मुस्लिम समाज में ऊँच-नीच और अवसर की असमानता को जन्म देता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी ने बीते कुछ वर्षों में बार-बार पसमान्दा मुस्लिमों का जिक्र किया है। 2022 में लखनऊ में भारतीय जनता पार्टी की कार्यसमिति की बैठक में भी पसमान्दा समाज को सशक्त करने की बात कही गई थी। अब पसमान्दा मुस्लिमों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने की बात खुलकर हो रही है। लगता है कि भारतीय जनता पार्टी चाहती है कि मुस्लिम समुदाय के अंदर जो बहुसंख्यक पिछड़ा वर्ग है, वह भारतीय जनता पार्टी की नीतियों को समर्थन दे। यह नीति कांग्रेस और समाजवादी पार्टियों के परंपरागत वोट बैंक में, सेंध लगा सकती है।
कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियाँ अब तक मुस्लिम समाज को एक समरूप इकाई मानकर उनके वोट की राजनीति करती रही हैं। मगर जातिगत जनगणना और पसमान्दा विमर्श ने उनकी रणनीति को झकझोर दिया है। यदि मुस्लिम समाज के भीतर पिछड़ों की वास्तविक स्थिति सामने आती है तो यह मुस्लिम नेतृत्व के चेहरे भी बदल सकता हैं। कई मुस्लिम सामाजिक संगठनों और उलेमाओं को यह डर है कि इससे मुस्लिम एकता टूटेगी और सत्ता में भागीदारी और कम हो जाएगी।
यूपीए सरकार के दौरान 2011 में जातिगत जनगणना की गई थी। लेकिन रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया था। मुस्लिमों की जातियों को समुचित रूप से अलग-अलग वर्गों में नहीं गिना गया था। यही कारण है कि पसमान्दा तबके की वास्तविक स्थिति आज भी सरकारी रिकॉर्ड में स्पष्ट नहीं है।
आरक्षण नीति और राजनीतिक आरक्षण के तहत एससी सीटों पर केवल दलित हिन्दू समुदाय के लोग ही लड़ सकते हैं। मुस्लिम दलितों को इसमें शामिल नहीं किया गया है, जबकि वे भी समान रूप से उत्पीड़न का शिकार हैं। पसमान्दा संगठन मांग कर रहा हैं कि उन्हें दलित मुस्लिम के रूप में आरक्षण मिले। 2024 के बाद भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी सरकार ने इस दिशा में परोक्ष संकेत दिए हैं।
उत्तर भारत में भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह से गैर-यादव पिछड़े और गैर-जाट दलितों को संगठित किया, है, उसी तरह अब गैर-अशराफ मुस्लिम यानि पसमान्दाओं को साथ लाने की योजना है। 2024 लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को मुस्लिम वोटों की बहुत उम्मीद नहीं थी, लेकिन अब वह पसमान्दा मुस्लिमों को टारगेट करने का प्रयास कर रही है। यह "वोट काटने" से ज्यादा सामाजिक पुनर्गठन की रणनीति है।
यदि जातिगत जनगणना होती है और पसमान्दा मुस्लिमों की सही संख्या, हालात और प्रतिनिधित्व का खुलासा होता है, तो यह मुस्लिम समाज में ऐतिहासिक परिवर्तन ला सकता है। इससे अशराफ वर्ग के प्रभुत्व को चुनौती मिलेगी। नए सामाजिक नेतृत्व का उदय होगा। सामाजिक न्याय की बातें केवल हिन्दू समाज तक सीमित न रहकर मुस्लिम समुदाय में भी गूंजेंगी।
जहां कांग्रेस और विपक्ष अभी तक केवल नारा देते रहे हैं, वहीं भारतीय जनता पार्टी रणनीति के तहत काम शुरू कर दिया है।जहां तक जातिगत जनगणना मुद्दा है तो कांग्रेस आंशिक रूप से समर्थन करती है तो भारतीय जनता पार्टी ठोस घोषणा कर रही है। उसी तरह पसमान्दा विमर्श मुद्दा है तो कांग्रेस मौन या विरोध रहती है या करती है तो वहीं भारतीय जनता पार्टी सक्रिय समर्थन करती है। मुस्लिम नेतृत्व मुद्दा पर कांग्रेस के सामने परंपरागत उलेमा, सैयद दिखते हैं, जबकि भारतीय जनता पार्टी को पिछड़े तबके से नए चेहरे याद आ रहा है।
यह कदम ऐतिहासिक हो सकता है, लेकिन इसके साथ कुछ वास्तविक चुनौतियाँ भी हैं, जैसे- मुस्लिम समुदाय में फूट पड़ने की आशंका। उलेमा वर्ग का विरोध। कट्टरपंथी संगठनों द्वारा समाज को भड़काने का प्रयास, और जातिगत जनगणना के आंकड़ों के गलत प्रयोग की संभावना।
भारतीय जनता पार्टी का यह कदम सामाजिक न्याय के लिए है या वोट बैंक की राजनीति के लिए? यदि सही में पसमान्दा समाज को शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक भागीदारी में स्थान मिलता है, तो यह क्रांतिकारी कदम होगा और यदि यह सिर्फ चुनावी रणनीति रहा, तो यह विमर्श केवल "जुमला" बनकर रह जाएगा।
भारत में मुस्लिम समाज का पसमान्दा बहुसंख्यक हो कर भी सदियों से हाशिये पर रहा है। उनकी गिनती, उनकी शिक्षा, उनका प्रतिनिधित्व, और उनका जीवन स्तर यह सब आज भी उपेक्षित है। भारतीय जनता पार्टी की नई रणनीति चाहे राजनैतिक हो या सामाजिक, यदि इससे इस तबके को वाकई में सशक्तिकरण मिलता है, तो यह केवल एक ‘मास्टर स्ट्रोक’ ही नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक सामाजिक क्रांति होगी। जातिगत जनगणना के बहाने अब न केवल हिन्दू समाज की जातियों की सच्चाई सामने आएगी, बल्कि मुस्लिम समाज के भी अंतर्विरोध और असमानताएँ उजागर होगी।