भारत विश्व में सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है। यहाँ जनप्रतिनिधियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे जनता की आवाज़ को संसद और विधानसभाओं में पहुंचाएं। लेकिन जब वही जनप्रतिनिधि सत्ता के गलियारों में अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति करने लगे और जनता की समस्याओं के बदले में सौदेबाजी करने लगे, तो न केवल लोकतंत्र शर्मसार होता है, बल्कि जनता का विश्वास भी टूटता है।
प्रश्नकाल लोकतंत्र की सबसे अहम प्रक्रिया होता है। संसद और विधानसभाओं में यह समय जनता के मुद्दों को उठाने, जवाबदेही तय करने और सरकारी नीतियों की समीक्षा करने का सबसे सशक्त माध्यम है। इस मंच पर पूछे गए प्रश्नों के माध्यम से भ्रष्टाचार के कई मामलों का भंडाफोड़ हुआ, जनहित के मुद्दे सामने आए, सरकारें अपनी नीतियाँ बदलने को मजबूर हुई और मंत्रियों की कार्यकुशलता का मूल्यांकन भी हुआ है। लेकिन जब यही मंच जनप्रतिनिधियों के निजी मुनाफे की जमीन बन जाए, तब लोकतंत्र का उद्देश्य ही संदिग्ध दिखने लगता है।
सूत्रों के अनुसार, राजस्थान के बीएपी विधायक जयकृष्ण पटेल पर आरोप लगाया गया है कि उन्होंने खनन विभाग से जुड़े प्रश्न विधानसभा में न उठाने के एवज में एक खनन कारोबारी से 10 करोड़ रुपये की रिश्वत की माँग की है। भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने उन्हें रंगे हाथ पकड़ा है, जिससे न सिर्फ उनके आचरण पर, बल्कि पूरे विधायी प्रणाली पर प्रश्न उठ खड़े हो गए हैं। यह मामला इसलिए भी गंभीर दिखता है क्योंकि यह सीधे-सीधे उस प्रश्नकाल को प्रभावित करता है, जो जनता की समस्याओं को उठाने के लिए तय किया जाता है।
देखा जाए तो यह कोई पहला मामला नहीं है जब जनप्रतिनिधियों पर पैसे लेकर सवाल पूछने या न पूछने का आरोप लगा हो, क्योंकि वर्ष 2005 में ‘कैश फॉर क्वेश्चन’ कांड में 11 सांसदों को कैमरे पर पैसे लेते पकड़ा गया था। जिसके कारण, उन्हें संसद की सदस्यता से निष्कासित कर दिया गया था। सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि वे सभी अलग-अलग दलों से संबद्ध थे। उसी तरह वर्ष 2023 के नुसरत मोइत्रा प्रकरण में
टीएमसी सांसद पर पैसे लेकर सवाल पूछने का आरोप लगा था। लोकसभा की एथिक्स कमेटी की सिफारिश पर उनकी भी सदस्यता रद्द कर दी गई थी।
आज का सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि आखिर जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि नैतिकता की कसौटी पर इतने कमजोर क्यों साबित हो रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं, राजनीति में बढ़ता धनबल और बाहुबल, चुनावी खर्च की भरपाई के लिए भ्रष्टाचार, जनप्रतिनिधियों पर पार्टी नेतृत्व का ढीला नियंत्रण, और आचरण समितियों की कमजोर भूमिका हो। लेकिन यह सच है कि जब कोई जनप्रतिनिधि प्रश्न पूछने के लिए पैसे लेता है, तो वह सिर्फ एक व्यक्ति नहीं होता है, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा को चोट पहुंचाता है।
प्रश्नकाल की गरिमा तब टूट जाती है जब माननीय अनुपस्थित रहते हैं, प्रश्न समय पर पूछे नहीं जाते हैं, पूछे गए प्रश्नों को वापस ले लिया जाता है और सवाल ‘डील’ बन जाता है। क्योंकि इन सबका सीधा असर यह होता है कि सरकार की जवाबदेही घटती है और जनहित के मुद्दे अंधेरे में चले जाते हैं।
संसद और विधानसभाओं में आचरण समितियाँ बनी हुई होती हैं, जिसका उद्देश्य माननीयों के कार्यों की निगरानी करना होता है। लेकिन इनके निर्णय धीमी, राजनीति से प्रेरित और प्रायः निष्प्रभावी होता हैं। इन समितियों को स्वतंत्र रूप से काम करने की आवश्यकता दिखती है, जबकि इसकी कार्रवाई पारदर्शी और निष्पक्ष होनी चाहिए और दोषी जनप्रतिनिधियों पर त्वरित कार्रवाई कर दंड लागू होना चाहिए। देश में लोकतंत्र सिर्फ एक व्यवस्था नहीं है, बल्कि एक जिम्मेदारी है- जनता की, जनप्रतिनिधियों की, मीडिया की और पूरे समाज की। जब सवालों को बेचा जाने लगे, तो इसका मतलब है कि लोकतंत्र की जड़ें हिल रही हैं। इसलिए जरूरत है कि हम ईमानदार, पारदर्शी और जवाबदेह जनप्रतिनिधियों को चुनें।