मानव शरीर के लिए रक्त जीवनदायिनी धारा है, लेकिन इसी जीवनदायिनी रक्त की उपलब्धता, समूह मिलान, और सीमित शेल्फ लाइफ ने सदैव चिकित्सा जगत को चुनौती दी है। लेकिन अब जापान ने एक ऐसी चिकित्सा क्रांति को जन्म दिया है, जो इन सभी चुनौतियों को पीछे छोड़ सकता है। नारा मेडिकल यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने ऐसा यूनिवर्सल कृत्रिम रक्त तैयार किया है, जो न केवल किसी भी ब्लड ग्रुप के व्यक्ति को चढ़ाया जा सकता है, बल्कि इसकी शेल्फ लाइफ भी दो वर्ष है, जो सामान्य रक्त की तुलना में 24 गुना अधिक है। इसका बैंगनी रंग लोगों को चौंका जरूर रहा है, लेकिन इसके पीछे की तकनीक चिकित्सा विज्ञान को एक नई दिशा दे रहा है।
नारा मेडिकल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर हिरोमी सकाई के नेतृत्व में चल रहा इस प्रोजेक्ट में वैज्ञानिकों ने एक्सपायर हो चुके डोनेटेड रक्त से हीमोग्लोबिन निकालकर एक विशेष वायरस-रोधी कवच में बंद किया है। यह कवच रक्त को संक्रमण से बचाने के साथ-साथ उसे लंबे समय तक सुरक्षित भी बनाता है। इसके साथ चुओ यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर तैरुयुकी कोमात्सु ने एल्ब्युमिन प्रोटीन आधारित ऑक्सीजन कैरियर विकसित किया हैं जो रक्तचाप नियंत्रित करने, स्ट्रोक और रक्तस्राव जैसी आपातकालीन परिस्थितियों में अत्यंत सहायक हो सकता हैं।
यह कृत्रिम रक्त दो प्रमुख तत्वों से बना होता है। हीमोग्लोबिन वैसीकल्स (Hemoglobin Vesicles) को डोनेटेड ब्लड से निकाले गए हीमोग्लोबिन से तैयार किया जाता है। इन्हें नैनो साइज के लिपिड कवच में बंद किया जाता है जिससे यह शरीर के अंदर सुरक्षित रूप से काम कर सके। उसी प्रकार एल्ब्युमिन प्रोटीन आधारित ऑक्सीजन कैरियर्स रक्त में ऑक्सीजन ट्रांसपोर्ट को सुचारू रखता हैं और रक्तचाप नियंत्रित करने में सहायता करता हैं। इसकी सबसे खास बात यह है कि इसमें ब्लड ग्रुप मैचिंग की आवश्यकता नहीं होता है। यानि कोई भी व्यक्ति, किसी भी रक्त समूह वाला, इसे चढ़ा सकता है बिना किसी एंटीजन-अन्टिबॉडी प्रतिक्रिया के खतरे के।
कृत्रिम रक्त का बैंगनी रंग कई लोगों के लिए आश्चर्यजनक हो सकता है। लेकिन इसके पीछे का विज्ञान बिल्कुल साफ है। असल में, इसमें प्रयुक्त हीमोग्लोबिन वैसीकल्स और प्रोटीन मिश्रण का प्रकाश पर पड़ने वाला प्रभाव इसे बैंगनी रंग प्रदान करता है। यह रंग इसकी गुणवत्ता या कार्यप्रणाली को प्रभावित नहीं करता है।
इस तकनीक का क्लीनिकल ट्रायल वर्ष 2022 में शुरू हुआ था। शुरुआती चरण में 12 स्वस्थ वॉलंटियर्स (20-50 वर्ष आयु वर्ग) को 100 मिलीलीटर तक कृत्रिम रक्त दिया गया था। इसके कुछ मामूली साइड इफेक्ट्स देखने को मिले, जैसे हल्का बुखार या थकान, लेकिन किसी भी प्रतिभागी की जान को खतरा नहीं हुआ। अब शोधकर्ता वॉलंटियर्स को 100 से 400 मिलीलीटर तक डोज दे रहे हैं और परिणाम उत्साहजनक हैं। अनुमान है कि यदि आगे के चरण सफल होते हैं, तो 2030 तक यह रक्त आम उपयोग में लाया जा सकता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, हर साल 11.8 करोड़ रक्तदान होते हैं, जिनमें से 40% उच्च-आय वाले देशों से आते हैं, जबकि वे केवल दुनिया की 16% जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता हैं। इसका अर्थ है कि कम-आय वाले देशों में रक्त की भारी कमी है और लाखों लोग रक्त की अनुपलब्धता के कारण हर वर्ष अपनी जान गंवा देते हैं। यदि यह यूनिवर्सल कृत्रिम रक्त सफलतापूर्वक आम उपयोग में लाया जाता है, तो यह न केवल रक्त की कमी को पूरा करेगा, बल्कि ब्लड ग्रुप मिलान की बाध्यता खत्म करेगा और दूरदराज क्षेत्रों में आपातकालीन सेवाओं की गुणवत्ता भी सुधारेगा।
इस यूनिवर्सल कृत्रिम रक्त का उपयोग विशेषतः उन परिस्थितियों में वरदान साबित हो सकता है, जहां तत्काल रक्त की आवश्यकता होती है और ब्लड ग्रुप की पुष्टि संभव नहीं होता है, जैसे- युद्धभूमि और सैन्य आपात स्थितियों में, सड़क दुर्घटनाओं और प्राकृतिक आपदाओं में, गर्भवती महिलाओं के प्रसव के समय में, सर्जरी और गहन चिकित्सा इकाइयों (ICU) में और ग्रामीण या दुर्गम क्षेत्रों में, जहां ब्लड बैंक की सुविधा नहीं है।
अभी इस कृत्रिम रक्त की उत्पादन लागत सार्वजनिक नहीं किया गया है, लेकिन जापानी वैज्ञानिकों और नीति-निर्माताओं का प्रयास है कि इसे कम लागत में अधिक उत्पादन किया जाए। यदि इसका उत्पादन बड़े पैमाने पर किया गया, तो यह परंपरागत रक्त प्रणाली की तुलना में कम खर्चीला हो सकता है। लंबी शेल्फ लाइफ के कारण लॉजिस्टिक लागत कम हो सकता है और ब्लड बैंक के भंडारण की जटिलता कम हो सकता है। इससे अंतरराष्ट्रीय मानवीय संगठनों को भी मदद मिलेगा, जो युद्ध, सूखा, भूकंप या महामारी जैसी परिस्थितियों में रक्त की आपूर्ति करता हैं।
जब से यह खबर सामने आई है, सोशल मीडिया पर इसे लेकर उत्साह की लहर है। लोग इसे "बैंगनी चमत्कार", "लाइफ सेविंग पॉर्पल", और "ब्लड रिवोल्यूशन" जैसे नाम दे रहे हैं। वैज्ञानिक समुदाय भी इसे एंटीबायोटिक्स के बाद सबसे बड़ी चिकित्सा खोज मान रहा है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह तकनीक आने वाले वर्षों में मानव शरीर के अन्य तरल तत्वों जैसे प्लाज्मा, प्लेटलेट्स आदि के कृत्रिम विकल्पों की दिशा भी दिखा सकता है। अंग प्रत्यारोपण, कैंसर उपचार और जीन थेरेपी जैसे क्षेत्रों में भी नई उम्मीद जगाएगी।
जहां एक ओर यह तकनीक अत्यधिक आशाजनक है, वहीं कुछ चुनौतियाँ और चिंताएं भी हैं। क्या यह रक्त वर्षों बाद भी शरीर में सुरक्षित रहेगा? क्या मानव शरीर को कृत्रिम रसायनों के इतने निकट लाना उचित है?
यदि यह तकनीक महंगी हुई, तो यह विकासशील देशों के लिए अप्रभावी हो जायेगा।
अगर क्लीनिकल परीक्षणों में यह रक्त पूर्ण रूप से सुरक्षित और प्रभावी सिद्ध होता है, तो संभवतः आने वाले वर्षों में ब्लड बैंक प्रणाली में बड़ा बदलाव आ सकता है। रक्त की उपलब्धता अब मौसम, स्थान या डोनर पर निर्भर नहीं रहेगा और 'ब्लड ग्रुप' जैसी अवधारणाएं केवल रिकॉर्ड तक सीमित रह जायेगा। यह रक्त "यूनिवर्सल", "सुरक्षित", "दीर्घकालिक", और "तत्काल उपलब्ध" होने के सभी गुणों के कारण स्वास्थ्य सेवाओं में एक नया युग लेकर आ सकता है।
जापान के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित यह यूनिवर्सल कृत्रिम रक्त एक ऐसी बैंगनी आशा की किरण है, जो मानवता के लिए एक वरदान बन सकता है। यह खोज न केवल चिकित्सा के क्षेत्र में तकनीकी प्रगति का परिचायक है, बल्कि यह भी दिखाता है कि जब मानव मस्तिष्क और संवेदना मिलकर कार्य करता हैं, तो हम जीवन की सबसे कठिन चुनौतियों को भी मात दे सकते हैं।
यदि सब कुछ योजना के अनुसार चलता है, तो वह दिन दूर नहीं जब आपात स्थिति में रक्त न मिलने की समस्या इतिहास बन जाएगी, और "बैंगनी रक्त" चिकित्सा की नई परिभाषा बन जाएगा।