भारतीय संस्कृति में शिव भक्ति का विशेष स्थान है। भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक, मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग, न केवल दक्षिण भारत का आध्यात्मिक केंद्र है, बल्कि यह स्थान आध्यात्मिक, पौराणिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। आंध्र प्रदेश के श्रीशैल पर्वत पर स्थित यह ज्योतिर्लिंग शिव और शक्ति की संयुक्त उपासना का अद्भुत स्थल है। इस पावन स्थल को 'कैलाश का दक्षिण द्वार' भी कहा जाता है। यहाँ का शांत वातावरण, कृष्णा नदी की कल-कल बहती धाराएं और पर्वत श्रृंखलाओं की गोद में बसा यह धाम, शिव भक्तों के लिए एक दिव्य ऊर्जा का केंद्र है।
श्रीशैलम आंध्रप्रदेश के कर्णूल जिला में स्थित एक पवित्र तीर्थस्थान है। यह स्थल नल्लामलई की पहाड़ियों में बसा हुआ है, जो विंध्याचल और पूर्वी घाट के संगम पर स्थित है। यह क्षेत्र अपनी सुरम्यता और आध्यात्मिक आभा के लिए प्रसिद्ध है। श्रीशैल पर्वत को स्थानीय भाषा में "श्रीशैलम" कहा जाता है, जिसका अर्थ है, वह स्थान जहाँ "श्री" अर्थात देवी पार्वती और "शैल" अर्थात पर्वत का वास हो। श्रीशैलम के शीर्ष पर स्थित मल्लिकार्जुन मंदिर, कृष्णा नदी के निकट स्थित है। यहाँ तक पहुँचने के लिए भक्तों को घने जंगल, संकरी घाटियाँ और ऊँचाई पर स्थित पगडंडियों से होकर गुजरना पड़ता है, जो स्वयं में एक तीर्थ यात्रा जैसी अनुभूति देता है।
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की स्थापना से जुड़ी कथा अत्यंत रोचक है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार शिव-पार्वती ने विचार किया कि उनके दोनों पुत्रों, गणेश और कार्तिकेय में से किसका विवाह पहले किया जाए। दोनों में श्रेष्ठता को लेकर विवाद हुआ, तब शिव ने कहा, "जो सबसे पहले पृथ्वी की परिक्रमा कर लौटेगा, उसी का विवाह पहले होगा।"
कार्तिकेय तुरंत अपनी सवारी मोर पर बैठकर पृथ्वी की परिक्रमा के लिए निकल पड़े। गणेश जी ने अपनी चतुराई से माता-पिता की तीन बार परिक्रमा कर ली, क्योंकि वे उन्हें ही संपूर्ण सृष्टि मानते थे। यह देखकर शिव और पार्वती प्रसन्न हुए और गणेश का विवाह सिद्धि और बुद्धि से कर दिया गया।
जब कार्तिकेय लौटे और विवाह हो चुका देखा, तो उन्हें बड़ा दुख हुआ। वे नाराज होकर दक्षिण की ओर कौरवुंग पर्वत की ओर चले गए। माता पार्वती और भगवान शिव पुत्र को मनाने श्रीशैल पर्वत पहुँचे। वहाँ शिव ने मल्लिकार्जुन रूप में और पार्वती देवी ने भ्रमरांबिका के रूप में निवास किया। इस कारण मल्लिकार्जुन मंदिर को "एकमात्र ऐसा ज्योतिर्लिंग स्थल" माना जाता है जहाँ शिव और शक्ति एक साथ पूज्य हैं।
मल्लिकार्जुन नाम दो शब्दों से मिलकर बना है, मल्लिका और अर्जुन। मल्लिका अर्थात देवी पार्वती और अर्जुन अर्थात भगवान शिव। इस प्रकार यह स्थल उस दिव्य एकता का प्रतीक है, जहाँ शिव और शक्ति एकसाथ विराजमान हैं।
एक अन्य मत के अनुसार, यह नाम मल्लिका नामक भक्तिन के नाम पर पड़ा है, जिनकी गहन भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने यहाँ ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होकर दर्शन दिए थे।
मल्लिकार्जुन मंदिर द्रविड़ शैली की वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। मंदिर की गगनचुंबी गोपुरम (प्रवेश द्वार), विस्तृत प्रांगण, जटिल शिल्पकारी और गर्भगृह की सादगी, सब मिलकर एक दिव्य वातावरण की रचना करता हैं। मंदिर के गर्भगृह में मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग और समीप ही देवी भ्रमरांबिका का मंदिर है। दोनों मंदिर पास-पास स्थित हैं, जो यह दर्शाते हैं कि शिव और शक्ति एक-दूसरे से अभिन्न हैं। मंदिर के अंदर और बाहर अनेक पौराणिक दृश्य उकेरे गए हैं, जिनमें शिव-पार्वती, गणेश, कार्तिकेय और नंदी की विविध झांकियाँ प्रमुख हैं।
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग का महत्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि यहाँ शक्तिपीठ भी है। भ्रमरांबिका देवी मंदिर 18 प्रमुख शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। मान्यता है कि जब सती के शरीर के टुकड़े गिरे थे, तब यहाँ उनकी गर्दन गिरी थी। भ्रमरांबिका का अर्थ है, "भंवरे के समान गूंजती देवी"। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने एक बार एक असुर का वध भंवरे का रूप धारण कर किया था, इसलिए उन्हें भ्रमरांबिका कहा गया।
मल्लिकार्जुन की यात्रा को दक्षिण की कठिनतम और पवित्रतम यात्राओं में गिना जाता है। यहाँ तक पहुँचने के लिए हैदराबाद, विजयवाड़ा और कर्णूल से सड़क मार्ग द्वारा जाया जा सकता है। श्रीशैल बस अड्डे से मंदिर तक पैदल चढ़ाई करने का भी विशेष पुण्य फल बताया गया है। श्रद्धालु विशेषतः महाशिवरात्रि, नवरात्रि, श्रावण मास, और कार्तिक पूर्णिमा पर यहाँ दर्शन के लिए आते हैं। यहाँ एक परंपरा यह भी है कि जो दंपति संतान सुख की इच्छा रखते हैं, वे यहाँ शिव-पार्वती की संयुक्त पूजा करके मनोकामना पूर्ण कर सकते हैं।
स्थानीय कथाओं के अनुसार, आज भी कई भक्तों को यहाँ शिव के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। एक कथा यह भी प्रचलित है कि एक भक्त को जब जंगल में भूख लगी, तो स्वयं शिव जी ने साधु के रूप में प्रकट होकर उसे भोजन कराया। यहाँ स्थित पत्थलगुंडा नामक गुफा में कई साधक तपस्या करते हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे वर्षों से जीवित समाधि में हैं।
श्रीशैलम केवल एक ज्योतिर्लिंग और शक्तिपीठ ही नहीं है, बल्कि यह कई अन्य आध्यात्मिक स्थलों से भी जुड़ा हुआ है। सिकरु दंडम जहाँ भगवान कार्तिकेय ने तपस्या की थी। हथकेश्वर मंदिर नंदी के पीछे स्थित यह छोटा मंदिर आध्यात्मिक साधना के लिए प्रसिद्ध है। पातालगंगा कृष्णा नदी की एक शाखा जो नीचे गहरी घाटी में बहती है, जहाँ डुबकी लगाना विशेष पुण्यदायक माना गया है।
नल्लामलई पहाड़ियों की गोद में बसे श्रीशैल को जैव विविधता हॉटस्पॉट भी माना जाता है। यहाँ दुर्लभ जड़ी-बूटियाँ, जीव-जंतु और पक्षी पाए जाते हैं। यह क्षेत्र अब टाइगर रिजर्व के अंतर्गत भी आता है और पर्यटकों के लिए ट्रैकिंग, कैंपिंग और बोटिंग की भी सुविधाएँ हैं।
मंदिर में प्रतिदिन चार आरतियाँ होती हैं, प्रभात आरती सूर्योदय से पूर्व, मध्यान्ह आरती: दोपहर में
संध्या आरती सूर्यास्त के समय और रात्रि शयन आरती रात में विश्राम से पूर्व। इन आरतियों के दौरान मंदिर परिसर शंख, घंटियों और भक्तों के जयकारों से गूंज उठता है।
भारत सरकार और आंध्र प्रदेश सरकार ने मल्लिकार्जुन को 'प्रसाद योजना' के तहत शामिल कर इसे एक वैश्विक धार्मिक पर्यटन केंद्र बनाने की दिशा में अनेक प्रयास किया हैं। यहाँ रोपवे, विजिटर सेंटर, बोटिंग सुविधा, यात्रियों के लिए विश्रामगृह और जल प्रबंधन की आधुनिक व्यवस्थाएँ की गई हैं।
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ शिव और पार्वती एकसाथ पूज्य हैं। यह स्थल सिखाता है कि शिव बिना शक्ति के और शक्ति बिना शिव के अधूरी हैं। यह स्थान केवल एक तीर्थ स्थल नहीं, बल्कि एक ऐसा अनुभव है, जहाँ मन, शरीर और आत्मा तीनों की शुद्धि होता है।
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की यात्रा केवल एक धार्मिक कर्तव्य नहीं, बल्कि आत्मिक जागरण की दिशा में एक कदम है। यह स्थल भक्ति, तप, प्रेम और दर्शन का अद्वितीय संगम है। जो भी श्रद्धा और निष्ठा से इस स्थल का दर्शन करता है, उसके जीवन में शिवत्व का अवतरण निश्चित होता है।
