भारत की आत्मा में बसा है “सोमनाथ मंदिर”

Jitendra Kumar Sinha
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भारत भूमि पर ऐसे अनेक तीर्थ हैं, जो केवल धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि हमारे सांस्कृतिक गौरव, सभ्यता की निरंतरता और इतिहास के अद्वितीय प्रतीक हैं। ऐसा ही एक स्थल है “सोमनाथ ज्योतिर्लिंग” जो गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र के प्रभास पाटण में स्थित है। यह न केवल भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रथम माना जाता है, बल्कि यह स्थान राष्ट्रीय अस्मिता, आत्मबल और अटूट श्रद्धा का प्रतीक भी बन चुका है।

'सोमनाथ' नाम का अर्थ है "सोम (चंद्रमा) के स्वामी", और यह मंदिर चंद्रमा द्वारा निर्मित कहा जाता है। पुराणों के अनुसार, चंद्रदेव ने शिव की आराधना करके उन्हें प्रसन्न किया था और इस मंदिर की स्थापना की थी। तभी से भगवान शिव यहां 'सोमनाथ' के रूप में पूजित होते हैं। यह स्थान, प्रभास तीर्थ, वेरावल के पास, गिर सोमनाथ जिला, गुजरात में है। सरस्वती नदी का विलुप्त स्वरूप यहीं पर समुद्र से मिलता है यह मंदिर सागर तट पर खड़ा एक चमत्कारी स्थापत्य है, जिसके सामने सीधा अरब सागर फैला हुआ है।

सोमनाथ मंदिर का मूल निर्माण प्राचीन काल में चंद्रदेव द्वारा किया गया माना जाता है। इसे बाद में अनेक बार पुनर्निर्मित किया गया है, प्रत्येक बार विध्वंस के बाद यह मंदिर पुनः उठ खड़ा हुआ है। कुछ प्रमुख निर्माण काल इस प्रकार हैं- प्रथम निर्माण चंद्रमा द्वारा त्रेतायुग में चांदी से, द्वितीय निर्माण रावण द्वारा सोने से, तृतीय निर्माण श्रीकृष्ण द्वारा लकड़ी से, चतुर्थ निर्माण राजा विक्रमादित्य द्वारा पत्थरों से और आधुनिक निर्माण 1951 में सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रेरणा से किया गया है।

सोमनाथ मंदिर का इतिहास जितना गौरवशाली है, उतना ही त्रासदीपूर्ण और संघर्षमय भी है। इसे बार-बार इस्लामी आक्रांताओं द्वारा नष्ट किया गया, परंतु हर बार श्रद्धालु जनों ने इसे फिर से खड़ा किया। प्रमुख हमले में महमूद गजनवी (1025 ई.) ने इस मंदिर को ध्वस्त कर मंदिर से अपार संपत्ति लूट लिया था और उसे गजनी ले गया। मंदिर की मूर्ति को तोड़ कर सीढ़ियों में लगवा दिया गया था। अलाउद्दीन खिलजी का सेनापति अफजल खान (1296) पुनः मंदिर को नष्ट किया गया। मुगल आक्रमण में औरंगजेब ने इसे 1706 में फिर से गिरवाया। लेकिन धार्मिक विश्वास कभी नहीं मिटा। लोगों ने बार-बार इसे पुनर्निर्मित कर ‘सनातन विश्वास की अमर गाथा’ रच दी।

जब भारत स्वतंत्र हुआ, तब सरदार वल्लभभाई पटेल ने इसे राष्ट्र पुनर्निर्माण का प्रतीक मानकर इसकी पुनर्स्थापना का निर्णय लिया। उन्होंने 13 नवंबर 1947 को मंदिर पुनर्निर्माण की आधारशिला रखी। सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रेरणा था कि “हमने अपनी अस्मिता खोई थी, अब उसे पुनः पाना है।” इसकी पुनर्स्थापना
निर्माण वर्ष 1948–1951 रहा, इसके शिल्पकार थे प्रभाकर म्हात्रे, निर्माण शैली था चालुक्य शैली और लोकार्पण 11 मई 1951, को डॉ. राजेंद्र प्रसाद द्वारा किया गया। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा है कि "हम वह राष्ट्र हैं जो विध्वंस को भी मंदिर के रूप में पुनः गढ़ता है।"

सोमनाथ मंदिर न केवल धार्मिक स्थल है, बल्कि भारतीय शिल्पकला का अद्वितीय उदाहरण भी है। इसका प्रत्येक पत्थर भारतीय कला और विज्ञान की पराकाष्ठा को दर्शाता है। इसकी प्रमुख विशेषता है कि इसकी शिखर की ऊंचाई 150 फीट, कलश का भार 10 टन, ध्वजा की ऊंचाई 27 फीट, संरचना के भाग यथा-
गर्भगृह जहाँ शिवलिंग स्थापित है, सभामंडप पूजा व दर्शन के लिए और नृत्यमंडप भक्ति संगीत और नृत्य के लिए, समुद्र की दिशा में बना 'अभिलिखित तीर' (Arrow Pillar) जिस पर लिखा है "इस सीधी रेखा में अंतिम भूमि दक्षिण ध्रुव तक कोई भूभाग नहीं है।"

सोमनाथ मंदिर का सागर तट एक अद्वितीय आध्यात्मिक अनुभव प्रदान करता है। जब सागर की लहरें शिवालय के चरणों में समर्पित होती हैं, तो वह दृश्य किसी ध्यानावस्था जैसा प्रतीत होता है। मंदिर के सामने फैला अरब सागर एक शांत दर्शक के रूप में साक्षी है उस इतिहास का, जो हमने सहा और सहते हुए भी आगे बढ़ा। रात्रि में मंदिर की प्रकाश-सज्जा और सागर की गूंज श्रद्धालुओं को गहन ध्यान में डुबो देता है।

स्कंद पुराण, शिव पुराण और भागवत पुराण में सोमनाथ की महिमा का वर्णन विस्तार से मिलता है। कहा गया है कि इस मंदिर में दर्शन मात्र से पापों का क्षय और मोक्ष का प्राप्ति होता है। यह प्रभास तीर्थ वही स्थान है जहाँ श्रीकृष्ण ने देह का त्याग किया था।

सोमनाथ मंदिर में हर वर्ष हजारों श्रद्धालु आते हैं, विशेषकर महाशिवरात्रि के अवसर पर। यहां का प्रमुख उत्सव है महाशिवरात्रि मेला जहां लाखों श्रद्धालु एकत्र होते हैं, श्रावण मास विशेष पूजन जो हर सोमवार को विशेष रुद्राभिषेक होता है और प्रभास यात्रा जो द्वारका, गीर और सोमनाथ का तीर्थ-त्रिकोण है।

सोमनाथ केवल एक ज्योतिर्लिंग ही नहीं है, बल्कि यह अंधकार में उजाले की खोज, विनाश के बीच सृजन, और आस्था के अविरल प्रवाह का प्रतीक है। यह सिखाता है कि चाहे जितने भी संकट आएं, सत्य और श्रद्धा की लौ बुझाया नहीं जा सकता है। सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण केवल ईंट-पत्थरों का कार्य नहीं था, वह भारत के स्वाभिमान और गौरव की पुनर्प्राप्ति थी। सरदार पटेल का यह निर्णय आज भी हमारी आने वाली पीढ़ियों को यह प्रेरणा देता है कि संघर्षों के बाद भी नवनिर्माण संभव है, बशर्ते हमारी श्रद्धा दृढ़ हो।



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