बारा 1992: जंगलराज की पहली दस्तक या राजनीतिक प्रयोगशाला?

Jitendra Kumar Sinha
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बिहार की सियासत और समाज को झकझोर देने वाली घटनाओं में से एक था 1992 का बारा नरसंहार। ये घटना महज एक अपराध नहीं थी, बल्कि उस दौर की गंदी और जातिवादी राजनीति का खुला चेहरा थी। 12 फरवरी 1992 की रात, बिहार के गया जिले के बारा गांव में जो हुआ, उसने इंसानियत को शर्मसार कर दिया। इस हत्याकांड में 35 भूमिहार पुरुषों को चुन-चुन कर मौत के घाट उतार दिया गया। हत्यारे कोई और नहीं, बल्कि माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) से जुड़े उग्रवादी थे। यह हमला सिर्फ बदले की भावना से नहीं किया गया था, बल्कि इसके पीछे थी एक सियासी रणनीति – जातीय उन्माद को हवा देना और सत्ता की कुर्सी को बचाए रखना।


इस नरसंहार के पीछे प्रतिशोध की लंबी कहानी छिपी थी। कुछ महीने पहले ऊंची जाति के लोगों ने दलितों पर हमला किया था, जिसमें कई दलित मारे गए थे। बारा में एमसीसी के उग्रवादी कथित तौर पर उसी का बदला लेने पहुंचे थे। लेकिन बदले की आग ने सिर्फ निर्दोष लोगों की बलि ली। हमलावरों ने गांव को चारों तरफ से घेर लिया, पुरुषों को अलग किया, पहचान-पत्र देखे और जिनके नाम भूमिहारों जैसे लगे, उन्हें वहीं कुल्हाड़ी से काट डाला। औरतें चीखती रहीं, बच्चे कांपते रहे, लेकिन कोई रहम नहीं दिखा।


इस घटना ने लालू यादव की सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया। लालू, जो उस समय सामाजिक न्याय और पिछड़ों-दलितों की राजनीति के चैंपियन बनने का दावा कर रहे थे, उन पर सवाल उठने लगे कि क्या उनकी राजनीति ने राज्य को जातीय खून-खराबे की तरफ नहीं धकेल दिया है? विपक्ष ने आरोप लगाया कि लालू राज में कानून का राज खत्म हो गया है, और राज्य ‘जंगल राज’ में बदल चुका है। मगर लालू ने हर बार इस घटना को साजिश कह कर टालने की कोशिश की। उनका फोकस न्याय से ज्यादा अपने वोट बैंक को खुश रखने पर था।


बारा नरसंहार ने बिहार में दो बड़े बदलाव किए। एक, भूमिहार समुदाय में गहरा आक्रोश पैदा हुआ और वे संगठित होने लगे। दो, नक्सली संगठनों का खौफ और प्रभाव गांव-गांव में फैलने लगा। राज्य में जातीय नफरत ने राजनीति को पूरी तरह से जकड़ लिया और हर चुनाव में जाति ही सबसे बड़ा मुद्दा बन गया। पुलिस ने भले ही कुछ आरोपियों को गिरफ्तार किया, कुछ को सजा भी हुई, लेकिन इस तरह की घटनाओं का अंत नहीं हुआ।


बारा की घटना कोई एक रात की कहानी नहीं थी। यह उस समाज की तस्वीर थी, जिसे वोटबैंक और जातीय राजनीति ने खून-खराबे की खाई में धकेल दिया था। बिहार उस समय विकास से नहीं, बंदूक और जाति के बल पर चल रहा था। और इसका सबसे बड़ा खामियाजा भुगता – आम आदमी ने, जो न भूमिहार था, न दलित, सिर्फ एक इंसान था, जो शांति से जीना चाहता था।


बारा नरसंहार, बिहार की जातीय राजनीति का एक काला अध्याय है, जिसे बार-बार याद किया जाना चाहिए – ताकि कोई सरकार, कोई नेता, सिर्फ वोट के लिए नफरत की आग न भड़काए।

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