बॉलीवुड एक समय में भारतीय समाज का आईना हुआ करता था — जिसमें पारिवारिक मूल्य, त्याग, परंपरा, और नैतिकता की झलक मिलती थी। लेकिन आज वही बॉलीवुड, चमक-दमक और ग्लैमर की चकाचौंध में इतना डूब गया है कि वह न केवल हमारी सांस्कृतिक जड़ों को खोखला कर रहा है, बल्कि हमारे लड़के-लड़कियों की सोच और जीवनशैली को भी गुमराह कर रहा है।
आज की फिल्मों में नायक और नायिका की परिभाषा ही बदल चुकी है। परंपरागत रूप से जहां चरित्रवान, कर्तव्यनिष्ठ और परिवार के लिए समर्पित किरदार आदर्श माने जाते थे, अब वहां शराब पीने, गाली देने, बगावत करने और रिश्तों को हल्के में लेने वाले पात्रों को "कूल" और "आइकॉनिक" बताया जाता है। यह बदलाव सिर्फ स्क्रीन तक सीमित नहीं रहा — यह सोच धीरे-धीरे हमारी युवा पीढ़ी के आचरण, पहनावे और सोच में उतर चुकी है।
लड़कियां बॉलीवुड अभिनेत्रियों को देखकर पारंपरिक कपड़ों की जगह छोटे, अंगप्रदर्शक फैशन को आत्मविश्वास का प्रतीक मानने लगी हैं। अब उन्हें यह सिखाया जा रहा है कि "बोल्ड" होना ही स्वतंत्रता है, चाहे वह भाषा हो, कपड़ा हो या आचरण। वहीं लड़के यह मानने लगे हैं कि स्टाइल, अभद्र भाषा और लड़कियों को "इंप्रेस" करना ही मर्दानगी है।
बॉलीवुड ने रिश्तों की गहराई को भी सतही बना दिया है। शादी से पहले शारीरिक संबंध, बार-बार पार्टनर बदलना, विवाह को बोझ और परिवार को बाधा के रूप में दिखाना — यह सब हमारे युवाओं के दिमाग में स्थायी रूप से बैठ गया है। अब सच्चा प्यार, निष्ठा, और परिवार की इज्जत जैसे मूल्य 'पुराने ज़माने की बातें' बन चुकी हैं।
गानों की बात करें तो आजकल के गीतों में न तो शब्दों की गरिमा है, न भावनाओं की गंभीरता। डबल मीनिंग, अश्लील इशारे, और बेहूदे लिरिक्स को हिट बना दिया गया है। बच्चे जो बोलना भी ठीक से नहीं जानते, वे भी "छम्मा छम्मा", "बीड़ी जलइले", या "नशे में हूँ" जैसे गानों पर नाचते दिखते हैं — और माता-पिता इसे 'क्यूट' समझ कर मोबाइल में रिकॉर्ड करते हैं।
बॉलीवुड ने देश की भाषाओं और परंपराओं को भी काफी नुकसान पहुंचाया है। जहां पहले गांव, मंदिर, त्यौहार, गुरु-शिष्य परंपरा, और पारिवारिक संस्कारों को फिल्मों में प्राथमिकता दी जाती थी, अब वहां केवल क्लब, शराब, बगावत और शहर की अपसंस्कृति दिखती है।
यह सब केवल मनोरंजन नहीं है — यह एक मानसिक और सांस्कृतिक इंजीनियरिंग है, जो धीरे-धीरे हमारे समाज को अपनी जड़ों से काट रहा है। बच्चे अब बुज़ुर्गों के चरण नहीं छूते, त्योहारों को सिर्फ इंस्टाग्राम स्टोरी में डालने लायक समझते हैं, और संस्कारों को पिछड़ेपन की निशानी मानने लगे हैं।
समस्या यह नहीं है कि बॉलीवुड फिल्में बना रहा है। समस्या यह है कि वे किस तरह का कंटेंट "नॉर्मल" बना रहे हैं और हमारी पीढ़ियों को क्या परोस रहे हैं। जब तक माता-पिता और समाज इस बात को नहीं समझेगा और वैकल्पिक, संस्कारी, और सार्थक मनोरंजन को समर्थन नहीं देगा — तब तक बॉलीवुड का यह विकृत प्रभाव हमारे बच्चों को हमारी संस्कृति से और दूर करता रहेगा।
अब समय आ गया है कि हम अपनी परंपराओं को दोबारा सम्मान देना शुरू करें, और अपने बच्चों को सिर्फ सफल नहीं, संस्कारवान और चरित्रवान बनाना प्राथमिकता बनाएं। क्योंकि अगर जड़ें ही कमजोर हो जाएं, तो पेड़ कितना भी ऊंचा क्यों न हो — एक झोंके में गिर जाता है।
